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________________ मो.मा. प्रकाश प्रास्ताशः प्रतिभापरःप्रशमवान् ,प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परनिन्दया ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः, प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥१॥ याका अर्थ-बुद्धिमान होय, जाने समस्त शास्त्रनिका रहस्य पाया होय, लोकमर्यादा जाकै प्रगट भई होय, आशा जाकै अस्त भई होय, कांतिमान् होय, उपशमी होय, || है प्रश्न किए पहले ही जाने उत्तर देख्या होय, बाहुल्यपने प्रश्ननिका सहनहारा होय, प्रभु होय, परकी वा परकरि आपकी निन्दारहितपनाकरि परके मनका हरनहारा होय, गुणनिधान होय, | स्पष्ट मिष्ट जाके वचन होंय, ऐसा सभाका नायक धर्मकथा कहै । बहुरि वक्ताका विशेष लक्षण | ऐसा है जो याकै व्याकरण, न्यायादिक वा बड़े बड़े जैनशास्त्रनिका विशेष ज्ञान होय तो | विशेषपनै ताकौं वक्तापनों सोभै। बहुरि ऐसा भी होय अर अध्यात्मरसकरि यथार्थ अपने || | स्वरूपका अनुभवन जाकै न भया होय सो जिनधर्मका मर्म जानें नाही,पद्धतिहीकरि वक्ता होय || | है । अध्यात्मरसमय सांचा जिनधर्मका स्वरूप वाकरि कैसें प्रगट किया जाय तातें आत्मज्ञानी | होय तो सांचा वक्तापनों होय जातै प्रवचनसारविषै ऐसा कह्या है। आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान संयमभाव ये तीनों आत्मज्ञानकरि शून्य कार्यकारी नाहीं । बहुरि दोहापाहुविषै ऐसा कह्या है पंडिय पंडिय पंडिय, कण छोड़ि वितुस कंडिया।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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