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________________ मो.मा. प्रकाश F-00-16--00000000000000000000000000pcookeGoooooooopcordGOO90000-00 | परमाणूनिका पुञ्ज है सो शरीरहीका अंग है। ताके द्वारि जानपना हो है वा कामक्रोधादि भाव हो हैं सो सर्वमात्मा का स्वरूप है। विशेष इतना जो जानपना तो निज स्वभाव है काम || क्रोधादिक उपाधिक भाव हे तिसकरि भात्मो अशुद्ध है । बहुरि जब कालपाय क्रोधादिक | मिटेंगे भर नानपनाकै मन इंद्रियका आधीनपना मिटैगा, तब केवलज्ञानस्वरूप प्रात्मा शुद्ध होगा। ऐसे ही बुद्धि अहंकारादिक भी जानि लेने। जाते मन भर बुद्धादिक एकार्थ हैं। अर अहंकारादिक हैं ते काम क्रोधादिकवत् उपाधिक भाव हैं । इनकों भापत भिन्न जानना भ्रम है । इनकों अपने जानि उपाधिक भावनिका प्रभाव करने का उद्यम करना योग्य है । बहुरि जिनितें इनिका प्रभाव न होय सके पर अपनी महंतता चाहें ते जीव अपने इन भावनि कौं न ठहराय स्वच्छंद प्रवते हैं। काम क्रोधादिक भावनि को बधाय विषयसामग्रीविषे वा हिंसादिकार्यनिविणे तत्पर हो हैं। बहुरि अहंकारादिकका त्यागकों भी अन्यथा माने हैं । सर्वकों परब्रह्म मानना कहीं पापा न मानना ताकौं अहंकार का त्याग बतावे सो मिथ्या है। जातें कोई पाप है कि नाहीं । जो है तो आपविर्षे आपा कैसे न मानिए, अर न है तो सको ब्रह्म कौन माने है । तातें शरीरादि परविष महबुद्धि न करनी । तहां करता न होना सौ अहंकार का त्याग है । भापविर्षे अहंबुद्धि करने का दोष नाहीं । बहुरि सर्वको समान जानना ॥ कोई विष भेद न करना ताको राग द्वेष का त्याग पता हैं सो भी मिथ्या है। जाते सर्व ॐ00000000000sroopdeoccoodacontacoopsoopGOOGoodasoo-80008003clopolorproofac-go १८०
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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