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मो.मा.
प्रकाश
कहना मिथ्या है। जो आप शुद्ध होय भर ताकौं अशुद्ध जाने तो भ्रम, भर भाप काम क्रोधादि सहित अशुद्ध होय रह्या ताकों अशुद्ध जानै तो भ्रम काहेका । झूठा भ्रमकरि भापकों |शुद्ध माने कहा सिद्धि है । बहुरि तू कहेगा ए काम क्रोधादिक तो मनके धर्म हैं ब्रह्म न्यारा है तो पूछिए है—मन है सो तेरा खरूप है कि नाहीं। जो है, तो काम क्रोधादि भी तेरे ही भए, अर नाहीं है तो पूछिये है जो तू ज्ञानखरूप है कि जड़ है। जो ज्ञानखरूप है तो तेरै ।। तो ज्ञान, मन वा इंद्रिय द्वारा ही होता दीखे है । इनि बिना कोई ज्ञान घतावे तो ताकों जुदा । | तेरा वरूप मानै सो भासता नाहीं । बहुरि 'मन ज्ञाने' धातुते मन शब्दनिपजै है सो मन तो
ज्ञानस्वरूप है । यह ज्ञान किसका है ताकौं बताय । सो जुदा कोऊ भास नाहीं। बहुरि जो तू | जड़ है तो ज्ञान बिना अपने स्वरूप का विचार कैसे करें है। यह बने नाहीं । बहुरि कहै है | | ब्रह्म न्यारा है सो वह न्यारा ब्रह्म तू ही है कि और है । जो तू ही है तो तेरे में ब्रह्म हों ऐसा | मानने वाला ज्ञान है सो तो मनखरूप ही है मनते जुदा नाहीं। आपा मानना आपहीविषे | होय। जाकौं न्योरा जाने तिसविषे आपा मान्या जाय नाहीं । सो मनते न्यारा ब्रह्म है तो | मनरूप ज्ञान ब्रह्मविणे आपाकाहेकौं मान है । बहुरि जो ब्रह्म और ही है तो तू ब्रह्मविषमापा | काहेको माने । तातै भ्रम छोड़ि ऐसा मानि कि जैसे स्पर्शनादि इंद्रिय तो शरीर का खरूप है सो जड़ है याकै द्वारि जो जानपनौ हो है सो आत्माका स्वरूप है। तैसें ही मन भी सूक्ष्म |
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