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प्रो.मा.
अफारा
ग्रह, तिसका पोषक उपदेशकों न ग्रहै । यह उपदेश औरनिकों कार्यकारी है, ऐसा जाने । यहां उदाहरण कहिए है - जैसे शास्त्रविषै कहीं निश्श्रयपोषक उपदेश है, कहीं व्यवहारपोषक उपदेश है। तहां आपके व्यवहारका आधिक्य होय, तौ निश्चयपोषक उपदेशका ग्रहण करि यथावत् प्रवर्ते, अर आपके निश्चयका अधिदय होय, तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् । बहुरि पूर्वे तो व्यवहारश्रद्धानतै श्रमज्ञान्तै भ्रष्ट होय रह्या था, पीछे व्यव हारउपदेशही की मुख्यताकरि आत्मज्ञानका उद्दम न करें, अथवा पूर्वे तो निश्चयश्रद्धान वैराग्यतै भ्रष्ट होय स्वच्छ द होय रह्या था, पीछे निश्चय उपदेशही की मुख्यताकरि विषयकषाय पोषै । ऐसे विपरीत उपदेश हें बुरा ही होय । बहुरि जैसें श्रात्मानुशासन विषै ऐसा कला - "जो 'तू गुणवान् होष, दोष क्यों छ.ग. वे है। दोषवान् होना था, तो दोषमय ही क्यों न भया ।" सो जो जीव आप तो गुणवान् होय अर कोई दोष लगता होय, तहां दोष दूर करने के अर्थ तिस उपदेश को अंगीकार करना । बहुरि आप तौ दोषवान् होय, अर इस उपदेशका ग्रहणकरि गुणवान् पुरुषनिकों नीचा दिखावै, तो बुरा ही होय । सर्व दोषमय होते तो किंचित् दोषरूप होना बुरा नाहीं है । तातै तुम तो भला है । बहुरि यहां यह
१ हे चन्द्रमः किमिति नानभूरत्वं तद्वान् भोः किमिति तन्मय एा नाभूः । किं
नाम तव घोषयन्त्या स्वर्भानु न तथा सनिनादयः ॥ १४१ ॥
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