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मो.मा.
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प्रकाश
अनुभूति प्रगट भई" । सो यहां यह प्रयोजन है-परभावका त्याग होते ही अनुभूति प्रगट हो । है। लोकविर्षे काहूको श्रावते ही कोई कार्य भया होय, तहां ऐसे कहिए,-"जो यह आया ही। नाही, अर यह कार्य होय गया।" ऐसा ही यहां प्रयोजन ग्रहण करना । ऐसें ही अन्यत्र जानना । वहुरि जैसे प्रमाणादिक किछु कह्या होय, सोई तहां न मानि लेना, तहां प्रयोजन होय सो जानना । ज्ञानार्णवविषै ऐसा कह्या है-"अवार दोय तीन सत्पुरुष हैं।” सो नियमतें इतने ही नाहीं । यहां 'थोरे हैं' ऐसा प्रयोजन जानना । ऐसे ही अन्यत्र जानना । इस ही। रीति लिएं और भी अनेक प्रकार शब्ट्रनिके अर्थ हो हैं, तिनकों यथासंभव जानने । विपरीत अर्थ न जानना । बहुरि जो उपदेश होय, ताकौं यथार्थ पहिचानि जो अपने योग्य उपदेश होय, ताका अंगीकार करना । जैसे वैद्यकशास्त्रनिविषे अनेक औषदि कही हैं, तिनकों जाने, अर ग्रहण तिसहीका करै, जाकरि अपना रोग दूरि होय । आपके शीतका रोग होय, तो उष्ण || औषधिका ही ग्रहण करे, शीतल औषधिका ग्रहण न करै । यह भौरनिकों कार्यकारी है, ऐसा ।। जानै । तैसें जैनशास्त्रनिविषै अनेक उपदेश हैं तिनकौं जाने, अर ग्रहण तिसहीका करे, जाकरि अपना विकार दूरि होय । आपके जो विकार होय, ताका निषेध करनहारा उपदेशकों * दुःप्रशावललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशयाः विद्यन्ते प्रतिमन्दिरं निजनिजस्वार्थोद्यता देहिनः। आनन्दामृतसिन्धुशीकरच निर्धाप्य जन्मज्वरं ये मुक्तर्षद तुषीक्षणपपस्ते सन्ति वित्रा यदि ॥२४॥ [शानार्णव, पृष्ठ-]
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