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सारणतरण
श्रावन
॥१.१॥
श्लोक-आरति रौद्रसंजुक्त, धर्म अधर्म प्रोक्त ।
रागादि भावसंपूर्ण, अधर्म संसारभाजनं ॥ ९७॥ अन्वयार्थ (आरति रौद्र संजुक्तं ) आर्स और रौद्रध्यान सहित (धर्म) धर्मको (अधर्म ) अधर्म (प्रोक्तं) ४ कहा है । (रागादि भाव संपूर्ण ) रागद्वेषादि भावोंसे पूर्ण (अधर्म ) अधर्म (संसार भाजन ) संसारका भ्रमण
करानेवाला है। _ विशेषार्थ-रौद्रध्यान पहले चार प्रकारका कह चुके हैं। आर्तध्यान भी चार प्रकारका है। इष्टके वियोग होनेकी वारवार चिन्ता करना इष्ट वियोगज आर्तध्यान है। अनिष्टके संयोग होनेपर उसके वियोगकी वारवार चिंता करना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है। शरीरमें पीडा होनेपर उसके कारण घोर क्लेशका विचार करते रहना पीडा चितवन आर्तध्यान है। आगामी भोगोंकी इच्छा करके मनमें निरन्तर भावना करनी, निदान आर्तध्यान है। जिस धर्ममें ऐसे आर्तध्यानका व रौद्रध्यानका समावेश हो वह अधर्म है। कोई कोई धर्मवाले किसी पिछले मरण प्राप्त बडे पुरुषकी याद करके छाती कूटते व रोते पीटते हैं, उसमें धर्म मानते हैं। कोई मृगया शिकार करने में धर्म मानते हैं, कोई रोगादिसे पीडित होनेपर उसके लिये चिंतित रहकर देवी दिहाडी पूजनेसे रोग दूर होगा व उसके सामने रोनेसे वह दया कर देगी ऐसा मानते हुए धर्माचरण समझते हैं। कोई नाना प्रकारकी सांसारिक चाह करके पूजा दानादि करने में ही धर्म जानते हैं। कोई हास्य ठट्ठा करने में, दुर्वचन बोलने में, होली जलानेमें, कुचेष्टा करने में धर्म मान लेते हैं। कोई परिग्रह धारी महतको विशेष धन ४ देनेमें ही धर्म जानते हैं इत्यादि । जगतमें वे सब क्रियाएं जिनसे आर्तध्यान व रौद्रध्यान थोडा या
बहुत आता है या राग देषादि भावोंकी वृद्धि होती हो वह सब कुधर्म है, संसारका बढानेवाला है। ॐ धर्म तो मात्र एक वीतराग विज्ञान मय शुद्ध आत्माका भाव है या शुद्ध आत्माकी ओर उपयोगको ले जानेवाली पूजा, पाठ, जप, तप आदि क्रियाएं हैं। श्री पद्मनंद मुनिने धम्मरसायणमें कहा है
जत्य वहो जीवाणं मासिज्जह जत्थ अकियवयणं च । जत्व परदव्वहरणं सेविजइ जत्व परयाणं ॥१५॥ बहुभारंभपरिगहगहणं संतोसवज्जियं जत्थ । पंचुंबरमहुमांस भक्खिजह सत्य धम्मम्मि ॥१॥