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________________ प्रवृत्ति तो भए विना रहती नाही, पर शुभप्रवृत्ति चाहिकरि करनी परे है । ज्ञानीके चाहि चाप्रा. राहिए नाहीं । तातें शुभका उद्यम नाहीं करना । ताका समाधान शुभप्रवृत्तिविषे उपयोग लागनेकरि वा ताके निमित्तते विरागता वधनेकरि कामादिक हीन हो हैं । भर चुधादिकवि भी संकलेश थोरा हो है । तातें शुभोपयोगका अभ्यास करना।। । उद्यम किए भी जो कामादिक वा क्षुधादिक रहै, तौ ताकै अर्थि जैसें थोरा पाप लागै, सो।। करना । बहुरि शुभोपयोगकों छोड़ि निःशंक पापरूप प्रवर्त्तना तो युक्त नाहीं । बहुरि तू कहै | । है-ज्ञानीकै चाहि नाहीं अर शुभोपयोग चाहि किए होय, सो जैसे पुरुष किंचिंमात्र भी अ-11 पना धन दिया बाहै नाही, परंतु जहां बहुत द्रव्य जाता जाने, तहां चाहिकरि स्तोक द्रव्य देनेका उपाय करें है । तैसें ज्ञानी किंचिंमात्र भी कषायरूप कार्य किया चाहै नाहीं । परंतु जहां बहुत कषायरूप अशुभकार्य होता जाने, तहां चाहिकरि स्तोक कषायरूप शुभकार्य करने । का उद्यम करै । ऐसें यह बात सिद्ध मई-जहां शुद्धोपयोग होता जाने, तहां तो शुभकार्यका । निषेध ही है भर जहां अशुभोपयोग होता जाने, तहां शुभकर्को उपायकरि अंगीकार करना युक्त। है। या प्रकार अनेक व्यवहारकार्यकों उथापि स्वच्छंदपनाको स्थापै है, ताका निषेध कियाअव । तिस ही केवल निश्चयावलंबी जीवको प्रकृति दिखाइए है___एक शुद्धात्माकों जाने ज्ञानी होय है-अन्य किछु चाहिए नारी. ऐसा जानि कबहू ए
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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