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________________ मो.मा. #कांत तिष्टकरि ध्यानमुद्रा धारिमें सर्वकर्मउपाधिरहित सिद्धसमान आत्मा हों, इत्यादि विचार प्रकाश ॥ करि संतुष्ट हो है । सो ए विशेषण केसैं संभवें। असंभव हैं, ऐसा विचार नाही अथवा अ चल अखंडित अनुपम आदि विशेषणनिकरि आत्माकों ध्यावै हैं, सो ए विशेषण अन्य द्रव्य| निविषै भी संभवै हैं । बहुरि ए विशेषण किस अपेक्षा हैं, सो विचार नाहीं । बहुरि कदाचित् ।। सूता बैव्या जिस तिस अवस्थाविषै ऐसा विचार राखि आपकों ज्ञानी मानै है । बहुरि ज्ञानीके आश्रव बंध नाहीं, ऐसा आगमविर्षे कह्या है । ताते कदाचित् विषयकषायरूप हो है। तहां ।। | बंध होनेका भय नाहीं है । स्वच्छंद भया रागादिकरूप प्रवर्ते है । सो आपा परको जाननेका | तो चिन्ह वैराग्यभाव है, सो समयसारविर्षे कह्या है सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः । याका अर्थ यह सम्यग्दृष्टीके निश्चयों ज्ञानवैराग्यशक्ति होय । बहुरि कह्या है सम्यग्दृष्टिः खयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोप्याचरन्तु । आलम्ब्यन्तां समितिपरतां ते यतोद्यापि पापाः आत्मानामावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वशून्याः॥१॥ याका अर्थ-स्वयमेव यह में सम्यग्दृष्टी हो, मेरे कदाचित बंध नाहीं, ऐसे ऊंचा फुला +aaroopdoodFO0-8000261001ERNORMONE-EG-10 *Ferragonagorgeograporeogoog.6or
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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