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प्रकाश
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आत्माका श्रद्धान होय ही होय । ऐसा परस्पर अविनाभावीपना जानि आपापरका श्रद्धानकों ll वा आत्मश्रद्धान होनेकों सम्यक्त्व कह्या है । बहुरि इस छलकरि कोई सामान्यपने आपापरकों || जानि वा आत्माकों जानि कृतकृत्यपनौ माने, तौ वाकै भ्रम है। जाते ऐसा कह्या है-'निर्वि |शेषो हि सामान्यो भवेत्खरविषाणवत्' याका अर्थ यह, जो विशेषरहित सामान्य है सो गधेके | सींगकी समान है । ताते प्रयोजनभूत आस्रवादिक विशेषमिसहित आपापरका वा आत्माका || श्रद्धान करना योग्य है । अथवा सातौं तत्त्वार्थनिका श्रद्धानकरि रागादिक मेटनेके अर्थ परद्रव्यनिकों भिन्न भाव है, वा अपने आत्माहीकों भावै है। ताकै प्रयोजनकी सिद्धि हो है । तातें मुख्यताकरि भेदविज्ञानकों वा आत्मज्ञानकों कार्यकारी कह्याहै । बहुरि तत्वार्थश्रद्धान किए बिना || सर्व जानना कार्यकारी नाहीं । जाते प्रयोजन तौ रागादिक मेटनेका है । सो आस्रवादिकका श्रद्धानविना यह प्रयोजन भासे नाहीं। तब केवल जाननेहीते मानकों वधावै, रागादिक छोड़ें। नाहीं, तब वाका कार्य कैसे सिद्ध होय । बहुरि नवतत्वसंततिका छोड़ना कह्या है। सो पूर्वे नवतत्वके विचार करि सम्यग्दर्शन भया, पीछे निर्विकल्पदशा होनेके अर्थि नवतत्वनिका भी | | | विकल्प छोड़नेकी चाहि करी । बहुरि जाक. पहले ही नवतत्वनिका विचार नाही, ताके तिस || विकल्प छोड़नेका कहा प्रयोजन है । अन्य अनेक विकल्प आपकै पाइए है, तिनहीका त्याग करौ । ऐसें आपापरका श्रद्धानविषे वा आत्मश्रधानविष सप्ततत्वनिका श्रद्धानकी सापेक्षा
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