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तारणतरण
है वैसे अन्तरंग शुखात्मानुभवकी शक्ति भी बढती जाती है। वैराग्य भी बढता जाता है। कषा- श्रावकार यका उदय भी मंद होता जाता है। प्रत्याख्यानावरणका उदय जितना २ मंद होता जाता है, प्रतिमाका दरजा बढता जाता है। जब वह विलकुल बंद होजाता है मात्र संज्वलनका उदय रहता है तब श्रावकसे साधु होजाता है।
श्री रत्नकरण्ड आ. में कहा हैश्रावकपदानि देवरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणः सह सतिष्ठते क्रमविवृद्धाः ॥ १३६ ।।।
भावार्थ-श्री गणधर देवोंने श्रावकोंके ग्यारह पद कहे हैं उनमें पहले पहिलेके गुणोंके साथ आगे १ के गुण क्रमसे बढ़ते हुए चले जाते हैं। अंतरंग आत्म शुद्धि व बाहरी चारित्र दोनों बढ़ते जाते हैं। इनका पालन गृहस्थ आवकोंको भले प्रकार कर्तव्य है।
श्लोक-दसण वय सामाइक, पोसह सचित्त चिंतनं ।
अनुरागं वं भवयं, आरम्भ परिग्रहस्तथा ॥३७९ ॥ अनुमति उदिष्ट देश, प्रतिमा एकदशानि च ।
व्रतानि पंच उत्पाद्यते, श्रूवते जिनआगमं ॥ ३८०॥ अन्वयार्थ-दसण वय सामाइक) दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा (पोसह सचित चिंतन) प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्त विरत प्रतिमा (अनुरागं वं भवयं ) अनुराग भक्ति प्रतिमा, ब्रह्मचर्यव्रत प्रतिमा (आरम्भ परिग्रहस्तथा ) आरस्म त्याग प्रतिमा तथा परिग्रह त्याग प्रतिमा ( अनुमति उद्दिष्ट देशं च)
अनुमति त्याग प्रतिमा, उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा यहांतक एक देशवत है (प्रतिमा एकदशानि च ) ये ग्यारह ॐ श्रेणियां हैं (पंचव्रतानि उत्पाद्यते ) यहां पांच ब्रतोंकी शक्ति पैदा की जाती है (मिनागम श्रूयते) व जिन आगमको सुना जाता है।
विशेषार्थ-जो जिनवाणीको साधुओंके मुखार्विदसे प्रेमपूर्वक व भक्तिपूर्वक सुनें उसको श्रावक कहते हैं यह शब्दार्थ है। जिन आगमका अभ्यासी व भक्त हो वह श्रावक है, जो शास्त्रज्ञानसे अपने भीतर संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य बढाता चला जावे। यहां जो ग्यारह प्रतिमाके नाम