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तारणतरण
श्रावकाचार
॥३६७॥
के प्रभावसे इसका भाव कोमल, विवेकी, धर्मयुक्त, न्यायमार्गी व दया धर्मसे गर्मित होता है।
त होता है। यह व्रती न होनेपर भी व्रतीके समान आचरण करता है। धर्मध्यान का प्रारम्भ चौथे गुणस्थानसे होजाता है। यह मदा संसार शरीर भोगोंसे वैराग्ययुक्त होकर आत्माके शुद्ध स्वरूपकी भावना करता है। जगतमें सुख दुःखकी प्राप्तिके नाटकके दृष्टाके समान देखकर न उन्मत्त होता है और न विषाद करता है, भीतरसे समता भावका प्रेमी है।
ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप । श्लोक-श्रावकधर्म उत्पाद्यते, आचरणं उत्कृष्टं सदा ।
प्रतिमा एकादशं प्रोक्तं, पंच अनुव्वय शुद्धयं ॥ ३७८॥ मन्वयार्थ—(श्रावकधर्म उत्पाद्यते ) श्रावकका धर्म उत्पन्न करना चाहिये ( सदा उत्कृष्ट आचरण) जिससे निरंतर आचरण बढता हुआ उत्कृष्ट मुनि होने तक होजावे। श्रावककी (एकादशं प्रतिभा प्रोक्तं ) ग्यारह प्रतिमा या श्रेणी कही है (पंच अनुव्वय शुद्धयं ) जिनके द्वारा पांचों अगुवनोंकी शुद्धता होती है।
विशेषार्थ-अविरत सम्यग्दृष्टीमें मात्र यथाशक्ति आचरणका अभ्यास है। नियमरूप व्रतोंका पालन नहीं है। प्रतिमाएं पांचवें देशविरत गुणस्थानमें प्रारम्भ होती हैं। यहां जो श्रेणी होती है उसमें प्रतिज्ञाएँ दोष रहित पाली जाती हैं व आगेकी श्रेणीका अभ्यास किया जाता है, इनमें नियम आगे २ बढते जाते हैं, पिछले नियम छूटते नहीं हैं। ये ग्यारह श्रेणियां वाहरी आचरणकी उन्नति रूप होते होते मुनिपदके चारित्रमें बडी सुगमतासे आरूढ कर देती हैं। मुख्य बाहरी आचरण पांच व्रत हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, व परिग्रह त्याग । इनको पूर्ण पालनेवाले महाव्रती मुनि होते हैं तब उनको एक देश थोडा शक्तिके अनुसार पालनेषाले श्रावक होते हैं। पहली प्रतिमामें इनका पालन प्रारम्भ होता है सो ग्यारहवीं प्रतिमा तक महाव्रतके निकट पहुंच जाता है। जैसे किसी कार्यके १०० अंश हों, प्रथम १० अंश करे फिर बढते बढते ९९ अंश तक पहुंचे वहांतक वह कार्य अपूर्ण किथा गया। जब १०० अंश होजावे तब वह पूर्ण हुआ। जैसे बाहरी चारित्र बढता जाता
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ॐ॥३६७०