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मो.मा.
प्रकाश
भ्रम ही है बहुरि केई जीव कदाचित् पुण्यपापके कारन जे शुभ अशुभ भाव तिनिकौं भले । बुरे जाने हैं सो भी भ्रम है । जाते दोऊ ही कर्मबन्धके कारन हैं । ऐसें पुण्यपापका अयथार्थ
ज्ञान होते अयथार्थश्रद्धान हो है। या प्रकार अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यादर्शनका स्वरूप कह्या । यह असत्यरूप है तातें याह.का नाम मिथ्यात्व है। बहुरि यह सत्यश्रद्धान रहित है ताते याहीका नाम अदर्शन है । अब मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहिए है,--
प्रयोजनभूत जीवादि तत्वनिका अयथार्थ जानना ताका नाम मिथ्याज्ञान है। ताकरि तिनिके जाननेवि संशय विपर्यय अनध्यवसाय हो है ।' तहां ऐसे है कि ऐसे है। ऐसा जो परस्पर विरुद्धता लिए दोयरूप ज्ञान ताका नाम संशय है। जैसें 'मैं आत्मा हौं कि शरीर हों। ऐसा जानना। बहुरि ‘ऐसे ही हैं' ऐसा वस्तुस्वरूपते विरुद्धतालिए एकरूप ज्ञान ताका नाम विपर्यय है। जैसें में शरीर हों' ऐसा जानना । बहुरि 'कछू हैं ऐसा निर्धाररहित विचार ताका नाम अनध्यवसाय है। जैसें 'मैं कोई हौं' ऐसा जानना। या प्रकार प्रयोजनभूत जीवादि | तत्त्वनिविषे संशय विपर्यय अनध्यवसायरूप जो जानना होय ताका नाम मिथ्याज्ञान है । बहुरि । अप्रयोजनभृत पदार्थनिकों यथार्थ जानै ताकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम नाहीं है । जैसे मिथ्यादृष्टि जेवरीकौं जेवरी जानै तौ सम्यग्ज्ञान नाम न होय । अर सम्यग्दृष्टि जेवर कौं सांप जाने तो मियाज्ञान नाम न होय । इहां प्रश्न,-जो प्रत्यक्ष सांचा झूठा ज्ञानकौं सम्यग