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________________ मुनिपद लेते ही सर्व परिग्रहका त्याग किया था, पीछे केवलज्ञान भए तीर्थंकरदेवकै मो.मा. प्रकाश समवसरणादि बनाए, छत्र चामरादि किए, सो हास्य करी कि भक्ति करी । हास्य करी तो | | इंद्र महापापी भया, सो बनें नाहीं। भक्ति करि, तौ पूजनादिकवि भक्ति ही करिएहै । छमस्थ || | के आगे, त्याग करी वस्तुका धारना हास्य है । जाते वाकै विक्षिप्तता होय आये है। केवलीके| वा प्रतिमाकै आगें अनुरागकरि उत्तम वस्तु धरनेका दोष नाहीं। उनकै विक्षिप्तता होती नाहीं । धर्मानुरागतें जीवका भला होय । बहुरि वह कहै हैं-प्रतिमा बनावनेविषे, चैत्यालयादि करा-|| 15 वनेविणे, पूजनादि करावनेविषै, पूजनादि करावनेवि हिंसा होय, अर धर्म अहिंसा है । तातें। हिंसाकरि धर्म माननेते महापाप हो है, तातें हम इन कार्यनिको निषेधे हैं। ताका उत्तरउनहीके शास्त्रवि ऐसा वचन है,___सुच्चा जाणइ कल्लाणं सुच्चा जाणइ पावर्ग। उभयं पि जाणये सुच्चा जं सेयं तं समायर ॥१॥ यहां कल्याण पाप उभय ए तीन, शास्त्र सुनिकरि जाणे, ऐसा कह्या । सो उभय तौ । पाप अर कल्याण मिलें होय, ऐसा कार्यका भी होना ठहरया। तहां पूछिए है केवल धर्मत। तो उभय घाटि है ही, अर केवल पापतें उभय बुरा है कि भला है। जो बुरा है, तो यामें तो किछु कल्याणका अंश मिल्या, पापत बुरा कैसें कहिए । भला है, तो केवल पाप छोड़ि ऐसा || intentGooks@okOMORRCOMSIGNOREGIONatograpcomorangorodiooooootastroconscio-GOOKGookcciary
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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