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श्रावकाचार
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जहांसे फिर कभी आत्माका पतन नहीं होता है। ऐसा होते हुए भी अनित्य ऐसा जो स्वर्गवास व भोगोंका समागम आदि उसको नित्य कहना, यह सब कुंधर्म है। जो ऐसे धर्मके श्रद्धावान हैं वे पत्थरकी नौकामें चढ़ते हुए संसारमें डूबते हैं-वे पार नहीं पासक्ते हैं।
श्लोक-कुगुरुं अधर्म प्रोक्तं, कुलिंगी अधर्मे स्थितं ।
मान्यते अभव्यजीवेन, संसारे दुक्खकारणं ॥ ९४ ॥ मन्वयार्थ-(कुगुरुं) कुगुरुके (प्रोक्तं) कहे गये (अधर्म) अधर्मको व (अधर्मे ) कुधर्ममें (स्थितं ) चलनेवाले ( कुलिंगी) मिथ्याभेषी साधुको ( अभव्य जीवेन) अभव्य जीव ( मान्यते) अडान करके पूजता है । यह मान्यता (संसारे) इस संसारमें (दुक्खकारणं) दुःखोंका कारण है।
विशेषार्थ-यहां अभव्य जधिसे प्रयोजन उस जीवकी तरफ है जो मूढ बुद्धि है, संसार रोचक है, विषय कषायोंका प्रेमी है, ऐसा जीव ऐसे ही धर्मको चाहता है जिससे अपना लौकिक प्रयोजन सिद्ध होसके । धन पुत्रादिकी वृद्धि हो, जगतमें यश हो, विषयभोगोंके पदार्थोंका सम्बन्ध हो उसे आत्मानुभवरूप शुद्ध धर्म नहीं रुचता है । इसलिये ऐसा मृढ प्राणी असत्य धर्मकी व ऐसे अधर्मके उपदेश दाता कुलिंगी गुरुकी श्रद्धा कर लेता है और बड़ी भक्तिसे उनकी आराधना करता है जिससे पाप बांधकर संसारमें उस पापका फल दुःख भोगता है। जगतमें देखा जावे तो करोडों प्रकारके देवी देवताओंका स्थापन कुलिंगी गुरुभोंने नाना नामोसे कर रक्खा है। उनके द्वारा नानाप्रकारके लौकिक फलोंके पानेका लोभ दिया जाता है। मूर्ख प्राणी उस लाभकी आशासे कि हमारे लौकिक स्वार्थ सिद्ध होंगे, उन स्थापनाओंकी बडी भक्ति करते हैं। व उनके उपदेश दाताओंकी बड़े भावसे प्रतिष्ठा करते हैं। दूर दूर देशांतरसे इसी लोभमें आते हैं । वडा भारी परिश्रम उठाते हैं। संसारकी कामनामें फंसे हुए संसारकी ही सेवा करते हुए वे अपने संसारको बढ़ा लेते हैं, कुगतिमें जाकर दु:ख उठाते हैं।
श्लोक-अधर्म लक्षणश्चैव, अनृतं असत्यं श्रुतं ।
उत्साहं सहितं हिंसा, हिंसानंदी जिनागमे ।।९५॥