________________
सारणतरण
श्रावसकर
अन्वयार्थ-(जिनागमे ) श्री जिन आगममें (अधर्म ) कुधर्मका ( लक्षणश्चैव) लक्षण यही है (अनृतं) मिथ्यात्वरूप हो ( असत्यं श्रुतं ) असत्य शास्त्रसे प्रतिपादित हो ( उत्साहं सहितं हिंसा) जिसमें उत्साह सहित हिंसाकी पुष्टि हो अर्थात् (हिंसानंदी) हिंसामें आनन्द माननेवाला हो।
विशेषार्थ-कुधर्मका स्वरूप यही जैन शास्त्र में है कि जो मिथ्या दर्शन, मिथ्र्यो ज्ञान, और मिथ्या चारित्ररूप हो । आत्मा और अनात्माका न जिसमें सच्चा श्रद्धान हो, और न सच्चा ज्ञान हो। तथा जो हिंसाके स्थानमें हिंसाको पुष्टि करता हो । हिंसाके होनेमें धर्म मानकर आनन्द मनाया जाता हो वह सब कुधर्म है। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें स्वामी समन्तभद्र कहते हैं
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीय प्रत्यनीकानि भवंति भवपतिः ॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको तीर्थकरोंने धर्म कहाँ है तथा इनके उल्टे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्रको कुधर्म या अधर्म कहा है। क्योंकि ये ही संसारकी परिपाटीको बढानेवाले हैं।
सर्वज्ञ वीतरागको देव मानना, परिग्रह आरम्भ रहित ज्ञान ध्यानमें लीन निग्रंथ साधुको गुरु मानना, आत्मोन्नति कारक अहिंसामय धर्मको धर्म मानना जब सम्यग्दर्शन है तब इनसे विरोध रूप राग देष सहित अल्पज्ञानीको देव, परिग्रह धारी संसारासक्त साधुको गुरु, आस्माके रागद्वेष वईक व हिंसा पोषक मतको धर्म मानना मिथ्यादर्शन है। जीवादि सात तत्वका सच्चा श्रद्धान सम्यग्दर्शन है तब उनसे विपरीत तत्वों में श्रद्धान करना मिथ्यादर्शन है। आत्माके अशुद्ध होने व उसके शुद्ध होनेका उपाय इन सात तत्वों में भलेप्रकार बताया है। इनको न जानकर औरका और तत्वका अडान मिथ्यादर्शन है। देव गुरु धर्म तथा सात तत्वोंको यथार्थ न जानना मिथ्याज्ञान है। अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग इन महावतोंके विरुद्ध हिंसादि पोषक जो कुछ भी चारित्र है वह मिथ्याचारित्र है। निश्चयनयसे शुद्धात्मानुभवरूप परिणति धर्म है। इसके विपरीत जो परिणति है.वह कुधर्म है। इसतरह कुधर्मको हानिकारक व संसारवर्डक जानकर श्री सर्वज्ञ वीतराग भगवान बारा प्रणीत धर्ममें दृढ़ अडान रखना चाहिये । यही श्रावकका मुख्य कर्तव्य है।