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________________ ५. मनकै भो यथासंभव- निमित्त नैमित्तिकपणा ... परन्तु ताका मूल कारण जान नाहीं । याका वध दुःखका मूल कारः •ण चताई, दुःखका स्वरूप बताई, याके किए उपायनिकी झूठा दिखा तब सांचा उपाय करनेकी रुचि होय, तैसे ही यह संसारी संसारमैं तुःखी खेय रह्या है, परन्तु तिसका मूल कारण जान नाही पर सांचा उपाय जाने नाही पर दुख भी सह्या जाय माही तव आपकी भासै सोही उपाय कर है । तातै दुस्ख दूर होय नाही। तब तड़पि तड़पि परवश हुमा दुःखनिकी सहै है। दुखमिटे सुखीहोय-- तात. सम्यग्दर्शन ही दुख मेटनैकाभर सुख करनेका सांचा उपाय है। उत्कृष्टःरहनेका काल- । असंख्यात पुद्गल परावर्तन मात्र है पर पुद्गल परावर्तन काल आत्रका तौ संवर करै अर तिनि अन्य पदार्थ निकी दुखदायक मान है। तिनिहीकै न होने नाही का उपाय करै है सो अपने आधीन नाही। तामै कडू विशेष नाही- र यह शान केवल शारीविषै भी जाय मिले है,जैसे नदी समुद्रवि मिले है । यामैं कछू दोष माहीं। चारित्रमोहके उदयतें कषायभाव होय, तिसका नाम मिथ्याचारित्र है। यहां अपनी स्वभावरूप प्रवृत्ति नाही। यह सुखी है, ऐसी मिथ्या चारित्र कहिए है- अर कषायभाव हो हैं, सो पदार्थनिकै इष्ट अनिष्ट माननेते हो हैं. लो . इष्ट अनिष्ट मानना मिथ्या है। . से सो कहिए है-...जो भापको सुखदायक उपकारी होय ताकत कहिए, अर जो कर्तव्य नाही- कर्मका कर्तव्य है। रागद्वेष करना मिथ्या है- जो परद्रव्य इष्ट अनिष्ट होता भर तहां रागद्वेष करता, तो मिथ्या नाम न पावता । वह तौर अनिष्ट नाहीं। १२ १३२ ५ १३३ , १३४. . १३५ ६ १४
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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