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________________ भरणतरण श्रावकाचार ॥२९॥ श्लोक-मिथ्या संगं न कर्तव्यं, मिथ्या वासना वासितं । दूरे त्यति मिथ्यात्त्वं, देश इत्यादि त्यक्तयं ॥ २९४ ॥ सम्बयार्थ-(मिथ्यासंगं न कर्तव्यं) मिथ्यात्वका संग न करना चाहिये (मिथ्या वासना वासितं) मिथ्यास्वकी वासनासे वासित (देश इत्यादि त्यतय) क्षेत्र आदिका त्याग करना चाहिये । ज्ञानीजन (मिथ्यात्वं दूरे त्यमंति) मिथ्यादर्शनको दरसे ही त्याग देते। विशेषार्थ-मिथ्यादर्शनके समान कोई पाप नहीं है। सम्यग्दर्शनके समान कोई गुण नहीं है। व्यवहार मिथ्यात्वका सेवन अंतरंग मिथ्यात्वकी वासनाको दृढ करनेवाला है, जैसे व्यवहार सम्पग्दर्शनका सेवन अंतरंग सम्यग्दर्शनको दृढ करनेवाला है इसलिये धर्मात्मा श्रावक गृहस्थाको मिथ्यात्वके पोषक अपात्रोंका संग नहीं करना चाहिये । उनको उस क्षेत्र में भी नहीं जाना चाहिये जहां मिथ्यात्वकी पुष्टि हो व सम्यग्दर्शनकी विराधनाकी शंका हो । मिथ्यादर्शनसे उसीतरह बचना चाहिये जैसे दुर्गंध वायु, जल, भूमिसे बचा जाता है। कुशेव, कुगुरु, कुधर्मकी संगति मिथ्यात्वकी वासनाको पैदा करनेवाली है। इसलिये उनकी संगति न करना ही उचित है । जिस देशमें मिथ्यात्वका ही प्रचार है, व्यवहार सम्यग्दर्शनके साधन नहीं है उस देश में प्रथम तो जाना ही उचित नहीं है। यदि लौकिक कार्यवश जाना पडे तो सम्यग्दर्शनकी साधक क्रियाओंको करता रहे। जप, पाठ, सामायिक ध्यानादिको कभी न छोडे तथा मिथ्यात्व क्रियाओंकी संगतिमें आप न बैठे। धर्मयुडिसे मिथ्या धर्मके धारकोंका सन्मान आदि न करे। जैसे शुद्ध श्वेत वस्त्रका धारी इस बातकी सम्हाल रखता है कि कहीं कोई कीचडका धब्या मेरे कपडॉपर न लग जावे, पैसे 3 विवेकीको सम्हाल रखना चाहिये कि मेरे श्रद्धानमें कोई मलीनता न आनी चाहिये । इसीलिये ॐ अपात्रोंकी भक्ति करनी उचित नहीं है। लोक-मिथ्या दरे हि वाचंति. मिथ्या संग न दिष्टते । मिथ्या माया कुटुंबस्य, संगं विरचे सदा बुधैः॥ २९५॥ अन्वयार्थ (मिथ्या दुरे हि वाचंति) मिथ्यात्वसे दरसे ही बचना चाहिये (मिथ्या संग न दिष्टते). २९॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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