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खारणतरण
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जाती है। जिन दातारोंकी संगति से सम्यक्त दृढ हो उन हीके द्वारा दान लेनेसे सम्यक्कादि गुणों की वृद्धि होगी । यदि दातार सम्यक्त रहित है, मिथ्या देव शास्त्र गुरुका श्रद्धानी है तो पात्र के भीतर उसके भावोंका असर पडनेसे सम्यक्त भावमें बाधा होजायगी । अतएव सम्यक्ती सर्व ही पात्र उन अनापतनोंकी संगति नहीं करते हैं जिनसे श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र में अन्तर पड जावे। इसी लिये मिध्यादृष्टी दानको वे ग्रहण नहीं करते । श्रद्धावान श्रावक गृहस्थके ही द्वारा दिया हुआ दान लेते हैं।
श्लोक - मिथ्याती संगते येन, दुर्गति भवति ते नरा ।
मिथ्यासंग विनिर्मुक्तं, शुद्धधर्म रता सदा ॥ २९३ ॥
मन्वयार्थ – (येन) क्योंकि ( मिथ्याती संगते दुर्गति भवति ) मिथ्याती संसारासक्त मानवोंकी संगति से खोटी गति होती है अतएव (ते नरा मिथ्यासँग विनिर्मुक्तं ) वे मानव मिथ्यात्वीकी संगतिको छोडकर (शुद्ध धर्म रता सदा ) सदा ही शुद्ध रत्नत्रय धर्ममें लीन रहते हैं ।
विशेषार्थ – संगतिका बडा भारी असर होता है । कुसंगति से यह प्राणी मिथ्यादृष्टी होकर कुदेव, कुशास्त्र व कुगुरुका भक्त बन जाता है व इंद्रियोंके विषयोंका लम्पटी होकर विषयांध होजाता है । या ख्याति पूजा लाभादिके लोभ में पड जाता है, आत्मानुभव के हेतु रूप सच्चे धर्मका श्रवान खो बैठता है । अतएव नरक व पशुगति बांधकर नारकी या तिच होजाता है । इसीलिये जो पंडित पात्र हैं, चाहे मुनि हों या श्रावक हों या व्रत रहित सम्पती हों वे कुसंगति से सदा बचते हैं । मिथ्यादृष्टोकी संगति नहीं करते हैं तब वे मिध्यात्वी द्वारा दिया हुआ दान भी नहीं लेते। क्योंकि भोजनकी संगति व मिथ्यात्वी दातारकी संगति परिणामों में विकार उत्पन्न कर देगी । ज्ञानी पात्र सदा ही शुद्ध आत्मीक तत्वमें रमण किया करते हैं । व उसके साधक पांच परमेष्ठीको भक्ति करते हैं । धर्मात्मा गृहस्थोंकी ही संगति रखते हैं व धर्मात्मा गृहस्थोंके ही द्वारा दिया हुआ दान लेते हैं । उनके इस बातकी बडी सम्हाल रहती है कि हमारा रत्नत्रय धर्म किसी तरह भी मलीन न हो। वह पूर्णपने सुरक्षित रहे, इसलिये वे श्रद्धावान श्रावक गृहस्थोंके द्वारा दिया हुआ दान ही लेते हैं । मिथ्यातियोंको सम्यक्ती बनाकर फिर उनका आहार वस्त्र लेसक्ते हैं ।
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कान
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