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मो.मा.
प्रकाश
नवम गुणस्थानविणे वेदादिकका उदय मंद है, तहां मैथुनादि क्रिया व्यक्त नाहीं तातै तहां ब्रह्मचर्य ही कह्या । तारतम्यविणे मैथुनादिकका सद्भाव कहिए है। तैसें केवली के असाताका उदय अतिमंद है । जातें एक एक कांडकविणे अनंतवें भाग अनुभाग रहै ऐसे बहुत अनुभागकांडकनि | करि वा गुणसंक्रमणादिककरि सत्ताविणे असा तावेदनीयका अनुभाग अत्यंतमंद भया, ताका उदयविषै क्षुधा ऐसी व्यक्त होती नाहीं,जो शरीरकों क्षीण करै । अर मोहके अभावतें |
क्षधाजनित दुःख भी नाहीं तातें क्षुधादिकका अभाव कहिए है । तारतम्यविषे । तिनका सद्भाव कहिए है । बहुरि तें कह्या-आहारादिक बिना तिनकी उपशांतता कैसे होय, सो आहारादिकरि उपशांतता होने योग्य क्षुधा लागे तो मंद उदय काहेका रहा ।। देव भोगभूमियां आदि के किंचित मंद उदय होते ही बहुत काल पीछे किंचित महार। ग्रहण होहै तो इनकै तो अतिमंद उदय भया है, ताते इनके आहार का प्रभाव संभव है। बहुरि वै कहै हैं देव भोगभूमियांका तो शरीर ही ऐसा है, जाकौं धर्नेकालापीछे थोरी भूख लागै, इनका तो शरीर कर्मभूमिका औदारिक है । तातें इनका शरीर आहार बिना देशोनकड़ि पूर्वपर्यंत उत्कृष्टपर्ने कैसेंर है, ताका समाधान
देवादिकका भी शरीर वैसा है, सो कर्म केही निमित्ततें है। यहां केवलज्ञान भए ऐसा ही कर्म उदय भया जाकरि शरीर ऐसा भया, जाकों भूख प्रगट होती ही नाहीं । जैसें केवल