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________________ 9 भारी मार्तध्यान करते हैं। दूसरोंके पास अधिक सम्पत्ति देखकर उनको अनिष्ट सयोग जनित ४ वारणवरण श्रावकाचार Y आर्तध्यान होता है। बड़े देवोंके द्वारा सेवा दिये जानेपर उनका वाहन आदि बननेपर उसको मानसिक पीड़ा रूपी आर्तध्यान होता है। विषयभोगकी चाहसे जलते रहते हैं व सदा भोग चाहते हैं । इससे निदान आर्तध्यान भी होता है । अपने पास प्राप्त सम्पत्तिमें मगनता होनेसे परिग्रहानंदी रौद्रध्यान करते हैं। किसीसे पूर्वजन्मका वैर हो तो हिंसानंदी चौर्यानंदी ध्यान द्वारा उसको छिपा. कर कष्ट देना चाहते हैं। कौतुकके लिये ये व्यंतरादि असत्य व इंसीके वचनोंको कहकर मृषानंदी ध्यान करते हैं, अन्य मानवोंको दु:खित करके सुख मानते हैं। संक्लेश भावधारी असुरकुमार देव तीसरे नरक तक जाकर नारकियोंको आपसमें लड़ाकर प्रसन्न हो हिंसामें ही ध्यान करते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ चारों कषायोंके धारी हैं। शुद्ध भावकी प्राप्ति उनको स्वप्न में भी नहीं होती. है क्योंकि जिनके निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं हैं उनको आत्म परिणमन रूप शुद्ध भाव हो नहीं सक्ता. है।वे निरंतर रागद्वेष, मोहरूप अशुद्ध भावको ही किया करते हैं। अतएव ये कुदेव, मिथ्यादेव र हैं, उनकी आराधना मिथ्यादर्शन है । महान पापबंधका कारण है । मोक्षमार्गसे दूर रखनेवाली है। ४ श्लोक-अनन्तदोषसंयुक्तं, शुद्धीवं न दिष्टते । कुदेवं रौद्र आरूढं, आराधे नरयं पतं ॥ ५५ ॥ अन्वयार्थ (कुदेवं) रागीदेषी कुदेव (अनन्त दोष संयुक्त) अनन्त दोषोंको रखनेवाले हैं। वहां (शुद्ध भावं) शुद्ध भाव (न दिष्टते) नहीं दिखलाई पड़ता है वे (रौद्र आरूढं) रौद्रध्यानमें आरूढ हैं। (भाराधे ) उनकी भक्ति करनेसे ( नरयं पतं) नरकमें गिरना होगा। विशेषार्थ-रागीदेषी देव संसारी साधारण मानवोंके समान अनंत दोषोंसे परिपूर्ण है। जिनमें मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषाय हो उनमें दूषित भाव अनेक प्रकारके होसक्ते हैं। वहां शुद्ध आत्मीक अनुभव रूप भाव किस तरह होसक्ता है। वे परिग्रहमें मगन हैं, रातदिन विषयों में लीन हैं। अतएव रौद्रध्यानमें आरूढ़ हैं। ऐसे कुदेवोंकी भक्ति जो करते हैं वे तीव्र लोभी होते हैं। तीन ममता होनेसे वे नर्क आयुको बांधकर नर्क चले जाते हैं। कुदेवोंकी आराधना यहां तो कुछ फल ॥५९
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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