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________________ बारणतरण ॥॥ श्रावसंचार देती नहीं । उल्टा पापको बंध करती है, मनको मैला बनाती है, सच्चे देवोंकी आराधनासे विमुख । रखती है, परलोकमें यह दीन हीन दशामें पटक देती है, जिससे नरक निगोद व पशु गतिके घोर दुःख सहने पड़ते हैं। जो संसारके महान कष्टोंसे बचना चाहें उनको कुदेवादिकी भक्तिन करनी चाहिये। श्लोक-कुदेवं ये हि पूजते, वंदनाभक्ति तत्पराः। ते नरा दुःख सह्यंते, संसारे दुःखभीरुहे ॥ ५६ ॥ अन्वयार्थ—(ये हि) जो कोई (कुदेवं) कुदेवोंको (बन्दनाभात तत्पराः) उनकी वंदना व भक्किमें लीन होकर (पूर्वते) पूजते हैं (ते नराः) वे मानव (दुःखभीरुहे) दुःख और भयको उत्पन्न करनेवाले ( संसारे) संसारमें (दुःख ) दुःखोंको (सचंते) सहन करते हैं। विशेषार्थ-रागी, द्वेषी, देवी, देव आदिकी वंदना, भक्ति करना, शीरनी चढाना, आरती उतारना, पूजा करनी, आदि सब क्रिया करने वालेके अनंतानुबंधी कषायके कारण तीन पापका बंध होता है। एकेंद्रियादि, कीटादि, पशु पर्यायमें, दीन हीन मानवमें, दीन देवों में, या दुःखभाजन नरकके जीवों में उत्पन्न होनेके योग्य पापकर्मका बन्ध होजाता है। दुर्गतिमें जाकर महान् कष्ट भोगना पड़ता है। संसार तो क्लेश और भयका भरा हुआ है। ये अज्ञानी प्राणी जय उसीमें तन्मय हैं तब इसे दुःख ही दुख मिलें इसमें क्या आश्चर्य है। मिथ्यात्वके फलसे ही नीच अवस्था होती है। अतएव जो इस भयानक दु:खी समुद्र में क्लेश उठाना नहीं चाहते हैं किंतु सुख शांति पाना चाहते हैं उनको उचित है कि वे भूलकर भी रागी बेषी देवोंकी भक्ति न करें। श्लोक-कुदेवं ये हि मानते, कुस्थानं येऽपि जायते । ते नरा भयभीतस्थाः , संसारे दुःखदारुणे ॥ ५७ ॥ अन्वयार्थ (ये हि) जो कोई (कुदेव) रागी देषी देवोंको (मानंते) मानते हैं। (येऽपि) जो कोई (कुस्थानं ) कुदेवोंके स्थानों में-मंदिर मठ आदिकोंमें (जायते) भक्तिके लिये जाते हैं या संगति करते हैं (ते नरा) मानव ( दुःखदारुणे) अत्यन्त दु:खमई (संसारे) संसारमें (भयभीतस्थाः) भयभीत रहते हैं।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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