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________________ श्रावकाचार वारणतरण ___ अन्वयार्थ—(माया मोह ममत्वस्थाः) जो अज्ञानी बहिरात्मा मायाचार, मोह, ममत्वमें लीन हैं ५८॥ (च ये) और जो (अशुभभाव रताः) अशुभ भावों में रंजायमान हैं वे (यत्र) जिनमें ( रागादि संजुतं ) राग आदिका संयोग है (तत्र ) उनको (हि.) निश्चयसे (देव) अपना देव (जानते) जानते हैं। विशेषार्थ-अज्ञानी मिथ्यादृष्टी जीव संसारके मोहसे व ममत्वसे पागल होकर मायाचार करनेमें तत्पर रहते हैं व हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, क्रोधादि कषायके अशुभ भावों में रंगे रहते हैं उनको वे ही देव पसंद आते हैं जो रागद्वेषसे परिपूर्ण हैं। वे उनसे अपनी मनोकामनाकी सिद्धि चाहते हैं वे उनको खूब मिठाई आदि चढ़ाते हैं। घंटों उनके सामने नाक रगड़ते हैं कि उनका काम होजावे । उनको लक्ष्मी पुत्र आदिकी आशा होती है जिस आशाको ये रागी द्वेषी देव पूर्ण कर देंगे ऐसा विश्वास उन अज्ञानी जीवोंको रहता है। इससे वे कुदेवोंकी भक्तिमें राजी रहते हैं। वीतराग सर्वज्ञ भगवानकी भक्ति में दिल नहीं लगाते हैं। वे इस बातको भूल जाते हैं कि धन, पुत्र आदिका लाभ विना पुण्य कर्मकी सहायताके नहीं होसक्ता है। कोई भी रागी देषी देव किसीको पुण्य नहीं देसक्ता । उनकी भक्ति वृथा ही मिथ्यात्वके पापमें फंसाने वाली है। प्राणियोंको लौकिक धनादिके लिये बाहरी उपाय योग्य उद्यम आदि करना चाहिये व अंतरंग उपाय पापके क्षय करनेके लिये वीतराग सर्वज्ञ देवकी भक्ति करना चाहिये। श्लोक- आरौद्रं च सद्भावं, माया मद क्रोध संयुतं । करनं अशुद्ध भावस्य, कुदेवं अनृतं परं ॥ ५४ ॥ ____ अन्वयार्थ-(कुदेवं ) रागी देषी देव देवी आदि (आरौद्रं च सद्भावं) आर्तध्यान व रौद्रध्यानसे ॐ पूर्ण रहते हैं । (माया मद क्रोध संयुतं ) माया, अहंकार तथा क्रोध सहित होते हैं । (अशुद्ध भावस्य करन) * शुर भावनाको न पाकर निरंतर अशुद्ध भाव किया करते हैं। (परं अनृतं) इन कुदेवोंका पूजना४ ॐ महान मिथ्यात्व है। विशेषार्थ-जिन देवों में मिथ्यात्व व अनन्तानवन्धी कषायका उदय है ऐसे कीव कषाय पास नासे वासित होते हैं। इष्ट देवी आदिका व अपनी विभूतिका मरते समय वियोग होनेपर बड़ा
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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