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मो.मा.
प्रकाश
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बहुरि एषणासमितिविषै दोष टार्ले है। तहां रचाका प्रयोजन है नाहीं । तातै रचाही अर्थ समिति नाहीं है । तौ समिति कैसे हो है — मुनिनकै किंचित् राग भए गमनादिक्रिया हो है। तहां तिन क्रियानिविषै अति आसता के अभाव प्रमादरूप प्रवृत्ति न हो है । बहुरि और जीवनिकों दुखी कर अपना गमनादि प्रयोजन न साधै है । तातें स्वयमेव ही दया पलै है । ऐसें सांची समिति है । बहुरि बंधादिकके भयतै वा स्वर्गमोचकी चाहिते क्रोधादि न करें है, सो यहां क्रोधादिकरनेका अभिप्राय तौ गया नाहीं । जैसे कोई राजादिकका भयतें वा महंत|पनाका लोभतै परस्त्री न सेवै है, तौ बाक त्यागी न कहिए। तैसें ही यह कोधादिका त्यागी. नाहीं । तौ कैसें त्यागी होय । पदार्थ अनिष्ट इष्ट भासैं क्रोधादि हो हैं। जब तत्त्वज्ञानके अभ्यासतें कोई इष्ट अनिष्ट न भासै, तब स्वयमेव ही क्रोधादिक न उपजै, तब सांचा धर्म हो है । बहुरि अनित्यादि चितवनते शरीरादिककों बुरा जानि हितकारी न जानि तिनतें उदास होना ताका नाम अनुप्रेक्षा कहै हैं । सो यह तो जैसे कोऊ मित्र था, तब उसतै राग था, पीछे बाका अवगुण देखि उदासीन भया, तैसें शरीरादिकतैं राग था पीछे अनित्यत्वादि - वगुण अवलोकि उदासीन भया । सो ऐसी उदासीनता तौ द्वेषरूप है। जहां जैसा अपना वा शरीरादिकका स्वभाव है, तैसा पहचानि भ्रमकौं मेटि भला जानि राग न करना, बुरा जानि | द्वेष न करना, ऐसी सांची उदासीनताकै अर्थि यथार्थ नित्यत्वादिकका चितवन सो ही सांची
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