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भो.मा. प्रकाश
क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपो भारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तं क्षमन्ते न हि ॥ १ ॥ याका अर्थ-मोनत परांमुख ऐसे अतिदुस्तर पंचाग्नि तपनादि कार्य तिनकरि आप ही ||| क्लेश करे है, तो करौ । बहुरि अन्य केई जीव महाव्रत अर तपका भारकरि चिरकालपर्यंत क्षीण। होते क्लेश करे हैं, तो करौ । परंतु यह साक्षात् मोक्षस्वरूप सर्वरोगरहित जो पद आपै आप अनुभवमें आवै, ऐसा ज्ञान स्वभाव सो तौ ज्ञानगुणविना अन्य कोई भी प्रकारकरि पावनेकौं । समर्थ नाहीं है । बहुरि पंचास्तिकायविषै जहां अन्तविणे व्यवहाराभासवालोंका कथन किया है, तहां तेरहप्रकार चारित्र होते भी ताका मोक्षमार्गविषै निषेध किया है । बहुरि प्रवचनसारविषै आत्मज्ञानशून्य संयमभाव अकार्यकारी कह्या है । बहुरि इनहीं ग्रंथनिविर्षे वा अन्य परमात्माप्रकाशादि शास्त्रनिविषै इस प्रयोजन लिए जहां तहां निरूपण है। तातें पहले तत्वज्ञान भए ही आचरण कार्यकारी है। यहां कोऊ जानैगा, बाह्य तौ अणुव्रत महाव्रतादि साधे है, अन्तगंग परिणाम नाहीं, वा स्वर्गादिककी वांछाकरि साधै है, सो ऐसे साधे तो पापबन्ध होय । द्रव्यलिंगी मुनि ऊपरिमें ग्रेवेयकपर्यंत जाय है । परावर्तनिविणे इकतीससागर पर्यंत देवायुकी प्राप्ति अनन्त बार होनी लिखी है। सो ऐसे ऊँचेपद तो तब ही पावे, जब अन्तरङ्ग परिणामपूर्वक