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बारणवरण
॥१८॥
लक्षण सर्वज्ञ वीतराग अरहंत कथित जिनधर्ममें भलेप्रकार गठित होते हैं। बुद्धिमानको परीक्षा करके धर्म व कुधर्मका निर्णय कर लेना चाहिये । जिनकी परीक्षाकी शक्ति न हो वह परीक्षावानके बचनानुसार धर्मपर श्रद्धा लावें। हमारा भंडार गुप्त है, हमारा अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख स्वभाव सब हमारे ही पास है। इसकी प्रगटताकी जो कुंजी है वही सच्चा धर्म है। संसारका ममत्व इटानेवाला ही सच्चा धर्म है। कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैं
ममत्वान्जायते लोभो, लोभाद्रागश्च जायते । रागाच्च जायते द्वेषो, द्वेषादुःखपरम्परा ॥ २११॥ निर्ममत्वं परं तत्वं निर्ममत्वं परं सुखं । निर्ममत्वं परं बीजं, मोक्षस्य कथितं बुधैः ॥ १४ ॥
भावार्थ-ममतासे लोभ पैदा होता है, लोभसे राग उत्पन्न होता है, रागसे द्वेष होता है, वेषसे दुःखकी संतान चलती है। ममता रहित परम तत्व है,ममता रहित पना परम सुख है, ममता रहित पना मोक्षका श्रेष्ट उपाय है, ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है। जिन्होंको आत्मीक आनन्दकी प्राप्तिकी भावना है उनके शुद्धोपयोगमई भावको असली धर्म समझना चाहिये।
धर्मध्यानका स्वरूप। श्लोक-धर्म अर्थति अर्थ च, तीअर्थ वेदनं युतं ।
षट्कमलं त्रि ॐकारं, धर्मध्यानं च संयुतं ॥ १७५॥ अन्वयार्य-(धर्म) धर्म (अर्थ च अर्थति ) प्रयोजनका उद्देश्यको लिये हुए होता है (तीअर्थ) तीन अर्थ जो रत्नत्रय है उसकी (वेदनं ) अनुभूति (युतं ) सहित है। (षट्कमलं ) छः अक्षररूप ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं : कमल सहित व (त्रि ॐकारं ) तीन ॐ सहित रत्नत्रयरूप ऐसे (धर्मध्यानं च संयुतं ) धर्मध्यान
अनुभूति (युत ) साहित
सहित है। सहित व (त्रि
विशेषार्थ-धर्म वही है जो अपने प्रयोजनके लिये हुए हो, वह प्रयोजन यह है कि निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान व निश्चय सम्परचारित्रमई तीनों भावोंका एक साथ अनुभव किया जावे, इस अनुभवका सहकारी कारण धर्मध्यान है।
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