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________________ मन्वयार्थ (पाषंड़ी मानते) जे मूढ़ अज्ञानी आत्मज्ञान रहित साघु जाने जाते हैं (ये पाषंड भ्रमरताः) कारणवरण जो मिथ्यात्व भ्रम जाल में आसक्त हैं (पुद्गालार्थ परपंचं च) जो इस शरीरके लिये ही सर्व प्रपंचजाल ॥२४॥ करते रहते हैं उनको गुरु मानना (पार्षडमढ़ न संशयः) पाषंड मूढता है, इसमें कोई संशय नहीं है। विशेषाथे-सुगुरु कुगुरुके स्वरूप में पाषंड मुदताका कथन आचुका है। फिर भी ग्रंथकर्ताने यहा शिष्योंको समझाया है कि परिग्रह रहित निग्रंथ साधुओंके सिवाय और किसी साधुको अपना ४ सच्चा पूज्यनीक गुरु न मानना चाहिये । जगतमें अनेक साधु साधुके भेषमें रहते हैं। न उनकी क्रिया ही मोक्षमार्ग रूप है और न उनको शुद्धात्माका ज्ञान ही है। जो स्वयं मिथ्यात्वभाव सहित हैं, जिनके संसारकी लालसा छूटी नहीं है, जो परिग्रह व धनके लोभी, इंद्रियके विषयोंके लम्पटी हैं, स्वयं कुदेवोंके व प्रदेवोंके उपासक हैं और वैसा ही उपदेश अन्योंको देते हैं, जिनका जप तप भजन आदि व अन्य उपदेशादि, विहारादि सर्व क्रियाओंका हेतु जगतका प्रपंच है, वे इस शरीरके लिए और आगामी शोभनीक विषय भोगने योग्य शरीर पानेके लिए ही मनमाना साधन करते रहते हैं। जिनके दिलों में हिंसा व अहिंसाका विचार भी नहीं है। गांजा, चरस आदि मशेके पीनेसे जिनको ग्लानि नहीं है । इत्यादि मोक्षमार्गसे विपरीत आत्मानुभवसे शून्य साधु नामधारी साधुओंको साधु मानकरके भक्ति करना, उनमें साधुपनेकी श्रद्धा रखनी, पाखण्ड मूढ़ता है। सम्यग्दृष्टीको प्रथम ही स्याज्य है। श्लोक-अनृतं अचेत उत्पादं, मिथ्या माया लोक रंजनं । पाषंडि मूढ विश्वासं, नरये पतंति ते नरा ॥ २४५॥ अन्वयार्थ (अनृतं अचेत उत्पाद) मिथ्यात्व व अज्ञानको ही वे उत्पन्न करनेवाले हैं। वे स्वयं (मिथ्या ४ माया लोक रंजन) मिथ्यात्व, मायाचार व लोगोंके रंजायमान करने में लगे रहते हैं। जो कोई (पाखंडि मूद विश्वासं ) ऐसे मूढ साधुओंका विश्वास करते हैं (ते नरा नरये पतंति ) वे मानव नरक पडते हैं। . विशेषार्थ-कुगुरुओंकी सेवा करनेसे सेवकोंका मिथ्यात्व और अज्ञान और अधिक बढ जाता ॐहै, वे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिसे बहुत दूर होते जाते हैं क्योंकि वे साधु स्वयं मिथ्यात्व वासित है, संसारानुरागी है, विषयभोगोंमें आसक्त हैं। जैसे स्वर्गादिमें कामभोगकी चाहको
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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