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मो.मा.
वहुरि अध्यात्मग्रंथनिविष भी स्वच्छंद होनेका जहां तहां निषेध कीजिए है. ताते जो नीके। | तिनको सुनै, सो तो स्वच्छंद होता नाहीं । भर एक बात सुनि अपने अभिप्रायते कोऊ
स्वच्छंद होय, तो ग्रंथका तो दोष है नाहीं, उस जीवहींका दोष है । बहुरि जो झूठा | दोषकी कल्पनाकरि अध्यात्मशास्त्रका बांचना सुनना निषेधिये तो मोक्षमार्गका मूल | उपदेश तौ तहां ही है। ताका निवेध किएं मोदमार्गका निषेध होय । जैसें मेघवर्षा भए
वहुत जीवनिका कल्याण होय, अर काहकै उलटा टोटा पड़े तो तिसकी मुख्यताकरि मेघका | तो निषेध न करना । तैसें सभाविषै अध्यात्म उपदेश भएं बहुत जीवनिकों मोनमार्गकी
प्राप्ति होय अर काइके उलटा पाप प्रवत्त, तौ तिसकी मुख्यताकरि अध्यात्मशास्त्रनिका | तो निषेध न करना । बहुरि अध्यात्मग्रंथनिते' कोऊ खच्छंद होय, सो तो पहले भी मिथ्या| दृष्टी था, अब भी मियादृष्टी ही रह्या । इतना ही टोटा पड़े, जो सुगति न होय कुगति | होय । अर अध्यात्म उपदेश नहीं भएं बहुत जीवनिकै मोक्षमार्गकी प्राप्तिका अभाव होय,
सो यामें घने जीवनिका घना बुरा होय । तातें अध्यात्म उपदेशका निषेध न करना। बहुरि कोऊ कहै है-जो द्रव्यानुयोगरूप अध्यात्म उपदेश है, सो उत्कृष्ट है । सो ऊंची दशाकों प्रात होंय, तिनको कार्यकारी है, नीचली दशावालोकों तो व्रत संयमादिकका ही | उपदेश देना योग्य है । ताको कहिए है-जिनमतविर्षे तो यह परिपाटी हैं, जो पहले। ४४७
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