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________________ मो.मा. प्रकाश 00-400/00) इन्द्रियनिक विषयनिका ग्रहण भए मेरी इच्छा पूरन होय ऐसा जानि प्रथम तौ नानाप्रकार भोजनादिकनिकरि इन्द्रियनिकौं प्रबल करे है अर ऐसें ही जाने है जो इन्द्रिय प्रवल रहें मेरे विषय ग्रहणकी शक्ति विशेष हो है । बहुरि तहां अनेक बाह्यकारन चाहिए है तिनका निमित्त मिला है । बहुरि इन्द्रिय हैं ते विषयक सन्मुख भए ग्रहैं तातें अनेक बाह्य उपायकरि विषयनिका र इन्द्रियनिका संयोग मिला है नानाप्रकार वस्त्रादिकका वा भोजनादिकका वा पुष्पादिकका वा मन्दिर आभूषणादिकका वा गायक वादित्रादिकका संयोग मिलावनेके अर्थ बहुत खेदखिन्न हो है । बहुरि इन इन्द्रियनिके सन्मुख विषय रहै तावत् तिस विषयका किंचित्स्पष्ट जानपना रहै । पीछें मनद्वारे स्मरणमात्र रहता जाय । कालव्यतीत होते स्मरण भी मंद होता जाय तातें तिनिविषयनिकों अपने अधीन राखनेका उपाय करे । अर शीघ्र शीघ्र तिनिका ग्रहण किया करै बहुरि इन्द्रियनिकै तौ एककालविषै एक विषयहीका ग्रहण होय अर यह बहुत बहुत ग्रहण किया चाहै, तातें आखता ( उतावला ) होय शीघ्र शीघ्र एक विषयक छोड़ि और है । बहुरि वाकों छोड़ि औरकों ग्रहै । ऐसें हापटा मारै है । बहुरि जो उपाय याक भासै है सो करै है सो यह उपाय झूठा है जातें प्रथम तो इनि सबनिका ऐसैंही होना अपने आधीन नाहीं, महाकठिन है । बहुरि कदाचित् उदय अनुसारि ऐसें ही विधि मिले तौ इन्द्रियनिकों प्रबल किए किछू विषयग्रहणकी शक्ति वधै नाहीं । यह शक्ति तौ ज्ञानदर्शन बधे (बढ़ने पर ) बधै (बदै) ७१
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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