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तारणतरण
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न बुध्यते तत्त्वमतत्वमंत्री, बिमेद्यमानो रभसेन येन । त्यनंति मिध्यात्वविषं पटिष्ठाः सदा विभेदं बहुदुःखदायि ॥११- ७॥ भावार्थ - इस मिथ्यात्व विषके वशमें पड़कर यह जीव तत्व कुतत्वको परीक्षा नहीं करता है । मोहित होता हुआ, अतिशय करके मिथ्या तत्वोंका ही पक्षपाती रहता है । यह मिथ्यात्व अनेक भेदरूप है बहुत दुःखोंका देनेवाला है । आत्महितैषी पंडितोंको उचित है कि इस मिथ्यात्व के विषको त्याग देवें । निर्मल बुद्धि करके तत्वको समझकर सधी रुचि सहित धर्मको पालें ।
प्रशस्तमन्यच्च निदानमुक्तं, निदानमुक्तैर्व्रतिनामृषीन्द्रैः । विमुक्तिसंसारनिमित्तभेदाद्, द्विधा प्रशस्तं पुनरभ्युदायि ॥२०-७॥
भावार्थ — निदानके त्यागी मुनिराजोंने व्रती भव्योंके लिये निदानके दो भेद कहे हैं - एक प्रशस्त दूसरा प्रशस्त । जो मोक्षके लिये वांछा वह एक तरहका प्रशस्त है व जो संसारके निमित्तों की वांछा है वह दूसरी तरहका प्रशस्त है । मेरे कर्मोंका अभाव हो, मैं मुक्तिको शीघ्र जाऊँ यह मुक्ति निमित्त प्रशस्त निदान है । मुझे धर्मके साधक कुल, जाति, देश, शरीर धनादि मिलें यह संसार निमित्त प्रशस्त निदान है ।
श्रावकाचा
अप्रशस्त निदान भोगोंकी व मान पानेको इच्छाको कहते हैं । ये खोटा निदान तो व्रतीको छोड ही देना चाहिये । प्रशस्त निदान विकल्प अवस्था में कदाचित् होसक्ता है, परन्तु निर्विकल्प अवस्थाका बाधक जानके यह भी त्यागने योग्य है । व्रतीको किसी प्रकारकी इच्छा न करके समभा वसे चारित्र पालना चाहिये । सम्यग्दृष्टी मुक्तिको अपने पास ही समझता है । उसको दूर से लाना नहीं है । इसलिये उसकी भी चाह नहीं करता है तब शुभ गतिकी चाह भी क्यों ? करेगा भोगों की चाह करना तो महान विपरीत निदान शल्य है । कैसे हैं भोग, वहीं कहा है
ये पड़ते परिचर्यमाणाः, ये मारयंते बत पोष्यमाणाः । ते कस्य सौख्याय भवंति भोगा, अनस्य रोगा इव दुर्निवाराः ॥ २७-७ ॥ भावार्थ - इन भोगों को सेवन करनेसे थे पीड़ा पैदा करते हैं। इनको पुष्ट करनेसे ये अपना घात करते हैं, ये भोग नहीं मिटने वाले रोगके समान हैं । इनसे किसी भी मनुष्यको सुख नहीं होक्ता है । भोगका निदान आत्माका महान बुरा करनेवाला है ।
उन कुगुरुवों के मिथ्याज्ञानके कारण क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायोंकी वृद्धि नित्य होती रहती है। साधुपना कषायोंके घटाने के लिये धारण किया जाता है परंतु अज्ञानी साधु उल्टी ॥ ८२ ॥
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