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________________ वारणवरण विशेषार्थ-कुगुरुके सम्यक्तके अभावमें सच्चा ज्ञान नहीं होता है वे मिथ्या मति व मिथ्या श्रतके धारी होते हैं। यदि कदाचित् सर्वज्ञ कथित जिन आगमको भी जानते हैं तौभी शुरआत्माकी अशा विना उनका ज्ञान मिथ्या ही होता है। वे स्वयं अपने ज्ञानसे अपना भला नहीं कर सक्त हैं। और वे सर्वज्ञ प्रणीत आगमको नहीं जानते हैं-एकांत आगमके ज्ञाता हैं, उनके तो व्यवहारमें भी मिथ्या तत्वांका ज्ञान होता है। कुगुरुके तीन शल्य पाई जाती हैं जो महा दोषयुक्त हैं। माया, मिथ्या. निदान येतीन कांटे हैं। जैसे कांटा चुभ जाये तो शरीर में चैन नहीं पड़ती है वैसे ये तीन कांटोंमेंसे एक भी कांटा हो तो धार्मिक क्रिया फलदाई नहीं होती है। माया शल्यके वशीभूत हो कगरु मात्र अपना महत्त्व जमानेके लिये धार्मिक क्रियाओंको करते हैं। शुद्धात्माकं प्रकाशके लिये नहीं करते हैं। भीतरसे तो वैराग्य नहीं है न आत्मरंजक भाव है परंतु बाहरसे लोगोंको कुछ साधना दिखलाते हैं वे वास्तवमें नटके समान प्रदर्शक हैं, साधक नहीं । मिथ्या शल्यके वशीभूत होयथार्थ चिके विना धार्मिक क्रियाओंको कर लेते हैं। जैसे रुचि विना भोजन लाभकारी नहीं होता है वैसे मिथ्या रुचि सहित धर्मका कार्य आनन्दप्रद व परिणामोंको शुद्धतामें बढ़ानेवाला नही होता है।देखादेखी क्रिया करना मिथ्या शल्यके दोषसे पूर्ण है। निदान शल्यके वशीभूत हो आगामी भोगाभिलाष, स्वर्गप्राप्तिकी भावना होती है-स्वात्माधीन अतीन्द्रिय अनंत सुखरूप मोक्षकी भावना नहीं होती। जिनके हृदय में ये तीन या दो या एक भी शल्य हो वे व्रती नहीं हो सक्के हैं। श्री अमितगति महाराजने श्रावकाचारमें शल्योंका स्वरूप कहा हैनिकर्तितं वृत्तवनं कुठारी, संसारवृक्षं सवितुं धरित्री। बोधप्रभा ध्वंसयितुं त्रियामा, माया विवा कुशलेन दूरं ॥ १९-७॥ भावार्थ-माया शल्य चारित्र वनके काटनेको कुल्हाड़ी समान है। संसाररूपी वृक्ष उपजानेको पृथ्वी समान है। ज्ञानरूपी प्रकाशके नाशनेको रात्रिके समान है। जो अपना हित चाहे उसको मायाशल्य दूरसे ही छोडना चाहिये। बहुधा-किसी असत्य पक्षके चलानेको मायाचारसे धर्मक्रियाएं V कीव कराई जाती हैं जिनको करना उचित नहीं है। उनकी पुष्टि मायाशल्यस की जाती है। भीतर ४ जानता है कि ये अयोग्य है, शास्त्रोक्त नहीं है, फिर भी पक्षके मोहवश उनकी पुष्टि करता है यह मीयाशल्यका नमूना है। मिथ्या शल्यका स्वरूप इस भांति कहा है .
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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