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________________ श्रावकाचार मन्वयार्थ-कुगुरु ( मिथ्यासमय) मिथ्या आगमको (च) तथा ( मिथ्याप्रकृति ) मिथ्या वस्तुके स्वभा॥४०॥४ वको (मिथ्या) मिथ्या वचनों द्वारा (प्रकाशए) प्रकाशते रहते हैं। (शुद्धदृष्टिं ) शुद्ध आत्माके तत्वको ४. (न मानते) नहीं जानते हैं नहीं अनुभव करते हैं। (कुगुरुसंग) ऐसे कुगुरुओंका संग (विवर्जर) दूरसे छोड़ देना चाहिये। विशेषार्थ-वास्तव में स्याबाद नय गर्भित अनेकांत ही आगम है। जिसमें वस्तुको अनेक स्वभाव रूप जैसी कि वह है दिखलाया गया हो। वस्तु किसी अपेक्षा नित्य है किसी अपेक्षा अनित्य है, किसी अपेक्षा एक है किसी अपेक्षा अनेक है इत्यादि अनेक स्वभावोंको रखनेवाला पदार्थ हुआ करता है, उस पदार्थको यथार्थ अपेक्षासे यथार्थ जो कहे तथा जिसमें आत्माकी शुद्धिका व अहिंसांका व मोक्षका व मोक्षमार्गका यथार्थ स्वरूप दिखलाया गया हो तथा जो प्रमाणसे अबाधित हो, वैराग्यसे पूर्ण हो वही सच्चा आगम या समय है। इसके विपरीत एकांत वस्तुको कहनेवाला, मिथ्या संसारके पूजा पाठमें फंसानेाला, आत्माके अनुभव व वैराग्यसे दूर रखनेवाला, हिंसाके कार्यों में धर्म बतानेवाला, मोक्ष व मोक्षमार्गसे विपरीत कथन करनेवाला जो प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रमाणसे Vबाधाको प्राप्त हो-रागवर्द्धक हो सो सब मिथ्या आगम हैं। कुगुरु ऐसे ही आगमका व्याख्यान करते हैं, मनोरंजक कथाओंसे श्रोताओंको राजी करके उनके अनुकूल कथन करके उनसे विषयोंकी प्राप्तिरूप स्वार्थको सिद्ध करना चाहते हैं । वस्तुका हपभाव मिथ्या कहते हैं। उनकी सर्व वाणी मिथ्यात्वरूप होती है क्योंकि उनके भीतर मिथ्यातत्वोंकी श्रद्धा है व वे स्वयं मिथ्यात्वसे ग्रसित हैं, विषयानुरागी हैं, आत्मानंदके स्वादसे रहित हैं, शुद्ध आत्माके तत्वको जानते ही नहीं हैं, अनुभव करना तो दूर रहो । ऐसे संसारासक्त कुगुरुओंकी संगति करना उचित नहीं है। श्लोक-कुगुरुं कुज्ञानं प्रोक्तं, शल्यं त्रिदोषसंयुतं । । कषायं वर्धनं नियं, लोक मृढस्य मोहितं ॥ ७८॥ विशेषार्थ-(कुगुरुं ) कुगुरुको (कुज्ञानं ) मिथ्याज्ञान धारी ( शल्यं त्रिदोष संयुतं ) तीन शल्यरूपी दोष सहित (नित्यं ) सदा (कषायवर्धनं ) कषायोंको पोषनेवाले (लोकमूढस्य ) लोक मृतामें ( मोहितं) मोहित (प्रोकं) कहा गया है। ॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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