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আখি
बारमतरणY
शुभ भाव मिथ्यात्वकी कालिमाको लिये हुए है, संसारका कारण है। इसलिये उसको वास्तव में
अशुभ उपयोग कहते हैं। कुलिंगी भेषधारी साधुओं के संसारकी ही व कषायपुष्टिकी ही भावना ७९॥ है इसलिये उनमें गुरुपना रंच मात्र भी नहीं है ऐसा जानना योग्य है।
श्लोक-कुगुरु रागसम्बन्धः, मिथ्यादृष्टी च दिष्टते ।
रागद्वेषमयं मिथ्या, इन्द्रियविषयसेवनं ।। ७६ ॥ अन्वयार्थ (कुगुरुः ) कुगुरु (रागसम्बन्धः) रागभावोंसे अपना सम्बन्ध रखता है तथा (रागद्वेषमय) रागद्वेषसे पूर्ण (मिथ्या) असत्य (इन्द्रियविषयसेवन । पांच इन्द्रियों के विषयोंकी सेवा किया करता है (च) इसी लिये (मिथ्यादृष्टी) मिथ्यादर्शन सहित (दिष्टते) दिखलाई पड़ता है।
विशेषार्थ—सुगुरु जब अपना प्रेम व अपना कर्तव्य वैराग्य चितवन तथा आत्मविचारमें रखते हैं तब कुगुरु अपना प्रेम रागवर्द्धक कार्यों में रखते हैं। सुगुरु जब पांच इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होते हैं तब कुगुरु इन्हीं में अनुरक्त होते हैं । स्पर्शनेन्द्रियके वशीभूत हो सुन्दर गद्दे तकिये वस्त्रोंका स्पर्श व कामके वशीभूत हो सुन्दर स्त्रियोंका स्पर्श करते हैं, रसना इंद्रियवश बहुत ही इष्ट अनेक प्रकार खाद्यको भक्षण करते हैं, घ्राण इंद्रियके वश हो, अत्तर फूलेल लगाते हैं, पुष्पमालाओंसे अपने अंगको सज्जित रखते हैं। चक्षु इंद्रियके वशीभूत हो, रागभाव साधक स्त्री आदि व सुन्दर नगरादि व उपवनादिका दर्शन करते हैं, श्रोत्र इंद्रियके वशीभूत हो मनोहर गान वादिन सुनते रहते हैं। ये इंद्रियोंके विषयसेवन इसलिये मिथ्या हैं कि इनसे सुख व तृप्ति होनेके स्थानमें तृष्णाकी दाह और आकुलता बढ जाती है तथा वे रागद्वेषको बढा देते हैं, मनोज्ञ विषयों में राग बढता है तब जो उनके बाधक हैं उनसे द्वेष होता है-साधकोंसे राग होता है। जिनके संसारके क्षणिक पदार्थों में व झूठ इंद्रिय सुखमें रंजायमान पना होगा वे किस तरह सचे तत्वके श्रद्धालु होसक्ते हैं। वास्तव में वे सम्यग्दृष्टी नहीं हैं किंतु मिथ्यादृष्टी हैं।
श्लोक-मिथ्यासमय मिथ्या च, प्रकतिमिथ्या प्रकाशए।
- शुद्धदृष्टिं न जानते, कुगुरुसंग विवर्जए ॥ ७७ ॥
॥७९॥