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श्रावकाचार
तारणतरण
अपनी कषाय बढ़ा लेते हैं। यदि कोई विनय नहीं करे व आज्ञाके अनुसार पदार्थ न लावे तो उनको क्रोध आजाता है। जैसे जैसे उनकी भक्ति मूढ़ लोग करते हैं वैसे वैसे उनका मान बढ़ता जाता है । विषयभोग और मान पानेका लोभ भी बढ़ता जाता है। इस मान व लोभके वशीभूत हो माया कषायका प्रयोग भी बढता जाता है। ये कुगुरु लोककी मृढतामें फंसे रहते हैं। जैसे मूढ
जीव स्त्री पुत्रादिमें आसक्त हैं वैसे वे अपनी गद्दी, अपने शिष्य, अपने मानमें आसक्त हैं। प्रशंशाके * भूखे हैं। साधारण जनताको अपना भक्त जानकर उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। ऐसे कुगुरु दूरसे ही छोड़ने लायक हैं।
श्लोक-इन्द्रियाणां मनो नाथः, प्रसरंतं प्रवर्तते ।
विषयं विषम दिष्टं च, तन्मतं मिथ्याभृतयं ॥ ७९ ॥ अन्वयार्थ-(मनः) मन (इंद्रियाणां) पाचो इंद्रियोंका ( नाथः ) नाथ है। (प्रसरंत) जितना इसे ॐ फैलाया जाय यह (प्रवर्तते ) धर्तता है या दौडता है (विषम ) भयानक व कठिन (विषयं ) विषयोंको X (दिष्टं च ) देखा करता है ( तत् ) इस मनको (मिथ्याभूतयं ) मिथ्याभूत या मिथ्या काम करनेवाला (मतं ) कहा गया है।
विशेषार्थ-जिनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व स्वरूपाचरणकी शक्ति नहीं है उनका मन जगत पदाथों में मोही होता हुआ रात दिन दौडा करता है। मनवाले प्राणियोंके मन ही मुख्य स्वामी कार्य करनेवाला है। मनकी प्रेरणासे इंद्रियाँ काम करती हैं। यह मन ऐसा चंचल या अनर्थ काम करनेवाला है कि बडे बडे कठिन इंद्रियोंके विषयोंकी तरफ अपनी दृष्टि डालता है। उनको प्राप्त करनेकी व उनको भोगनेकी चाहना किया करता है। यदि इस चचल घोडेपर लगाम न हो तब तो यह कहां। जाता है इसकी कोई मर्यादा नहीं। यह इन्द्रकी सम्पदा चाहता है, इन्द्राणी व अप्सराओंके साथ भोग चाहता है, स्वर्गके रत्नमयी महलोंका निवास चाहता है, इन्द्रकी सभा चाहता है जहां अनेक देव देवी प्रणाम कर रहे हों। अनेक दवियोंसे अपनी सेवा कराना चाहता है, चक्रवर्ती नारायण प्रतिनारायणकी विभूति चाहता है, राजा महाराजोंकी, सेठ साहूकारोंकी विभूति देखकर अपनाना