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धारणतरण
चाहता है, सुन्दर सुन्दर स्त्रियोंको देखकर उनको भोगना चाहता है। अच्छे २ महल बाग बगीचे नाव देखकर सुनकर व बड़े नगरोंकी रमणीकता जानकर व सुनकर उनमें सैर करना चाहता है। बड़े २ धनिकोंकी विभूति अपने पास होजाय ऐसा विचारा करता है। मैं सबपर आज्ञा करने लगू ऐसा प्रभुत्व चाहता है। मैं कभी बूढा न होऊ, मरूं नहीं, रोगी न होऊ, वियोगी न होऊ, मेरी स्त्री सदा आज्ञाकारिणी रहे, बहुतसे पुत्र पुत्री होवें, खूब धन कमाऊं, उनके विवाहमें खर्च करके, खुब अपना नाम करूं इत्यादि वे गिनती हवाई भावोंको बनाया करता है। तीन लोकमें
बेधड़क पहुंच जाता है। तीन लोकके इंद्रिय विषयोंको अपनाना चाहता है। अपनी शक्ति व योग्य. * ताका कुछ भी विचार न करके अपनेको दौडाया करता है। इसका सारा विचार स्वप्न समान मिथ्या
होता है। वृथा ही अपध्यान करके यह परिणामोंको रागी देषी बना देता है जिससे वृथा ही पापकर्मका बंध होता है। इस मनको ज्ञानियोंने नपुंसक व अनर्थकारी व मिथ्यारूप तथा एक प्रकारका मोह ग्राह कहा है। बृहत् सामायिकपाठमें श्री अमितगति आचार्य मनका चरित्र कहते हैं
भमसि दिवियोषा यासि पातालमंग । भ्रमति धरगिटष्ठं लिप्स्यसे स्वांतलक्ष्मीम् ॥
अभिलषसि विशुद्धां व्यापिनी कीर्तिकांतां । प्रशममुखमुखाधि गाहसे त्वं न जातु ॥ २८॥ भावार्थ-हे मन! तू देवियोंको भोगना चाहता है, कभी पाताल में जाता है, कभी सारी पृथ्वीपर घूमता है, मनमानी लक्ष्मी चाहता है, जगतव्यापिनी निर्मल कीर्ति चाहता है, तू चाइकी दाहमें ही जला करता है किंतु सुख शांतिमय समुद्र में कभी भी गोता नहीं लगाता है।
श्लोक-उत्साहं मिथ्या कृत्वा, अभावं असुखं परं ।
माया मोह असत्यस्य, कुगुरुः संसारभाजनं ॥८॥ अन्वयार्थ—(कुगुरुः) कुगुरु मनके द्वारा (मिथ्या) झूठा (उत्साई) उत्साह (कृत्वा) करके (अभाव) इच्छानुकूल पदार्थको न पाते हुए (परं) घोर (अमुखं) दुःखको भोगते हैं (माया मोह असत्यस्य) माया, मोह, असत्यके भाजन होते हुए (संसारभाजनं ) संसारके ही पात्र बने रहते हैं।
विशेषार्थ-ऊपरके इलोकमें जो मनका स्वरूप बताया है उस प्रकारके मनके धारी कुगुरु होते