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मो.मा. प्रकाश
जाय,
राखे है, ऐसा नाम पावें, वे क्रिया इनके हैं नाहीं । तातै अनृतादिकका इनके त्याग कहिये है । बहुरि जैसें मुनिके मूलगुगनिविषै पंचइंद्रियनिके विषयका त्याग कया । सो जानना इंद्रियनि का मिटै नाहीं, अर विषयनिविषै रागद्वेष सर्वथा दूरि भया होय, तौ यथाख्यात चारित्र होय , सो भया नाहीं । परंतु स्थूलपर्ने विषयइच्छाका अभाव भया र बाह्य विषय सामग्री मिलने की प्रवृत्ति दूरि भई, तातै याकै इंद्रियविषैका त्याग कया । ऐसें ही अन्यत्र जानना । बहुरि व्रती जीव त्याग वा आचरण करै है, सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसारि वा लोकप्रवृसिके अनुसार करें है । जैसे काढूनें प्रसहिंसाका त्याग किया है, तहां चरणानुयोगविषै वा लोकविषै जाको सहिंसा कहिये है, ताका त्याग किया, केवलज्ञानकरि जो त्रस देखिए है, तिनका त्याग बने नाहीं । तहां त्रसहिंसाका त्याग किया, तिसरूप मनका विकल्प न करना मनकरि त्याग है, वचन न बोलना सो वचनकरि त्याग है, कायकरि न प्रवर्त्तना, सो कायकरित्याग है । ऐसें अन्य त्याग वा ग्रहण हो है, सो ऐसी पद्धति लिए ही हो है, ऐसा जानना । यहां प्रश्न – जो करणानुयोगविषै केवलज्ञान अपेक्षा तारतम्य कथन है, तहां छठे | गुणस्थानवालेकै सर्वथा बारह अविरतिनिका अभाव कला, सो कैसे कया । ताका उत्तरअविरति भी योगकषायविषै गर्भित थे, परंतु तहां भी चरणानुयोग अपेक्षा त्यागका अभाव तिसहीका नाम अविरति कया है । तातैं वहां तिनका अभाव है । मनश्च विरतिका
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