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मो.मा. प्रकाश
हैं। यह तिनिकों एकमानि ऐसें माने है जो हस्तादि स्पर्शनकरि में स्पशर्या, जीभकरि वाख्या, नासिकाकरि संध्या, नेत्रकरि देख्या, कानकरि सुन्या, ऐसें माने है । मनोवर्गणारूप आठपांखड्रीका फूल्या कमलकै आकारि हृदयस्थानविषै द्रव्य मन है दृष्टिगम्य नाहीं ऐसा है सो शरीर काग है ताका निमित्त भए स्मरणादिरूप ज्ञानकी प्रवृत्ति हो है । यह द्रव्य मनकौं अर | ज्ञानकों एक मानि ऐसें माने है कि मैं मनकरि जान्या । बहुरि अपने बोलने की इच्छा हो है अपने प्रदेशनिकों जैसें बोलना बनै तैसे हलावे तब एकक्षेत्रावगाहसंबंध शरीर के अंग ही ताके निमित्त भाषावर्गणारूप पुदुमलवचनरूप परिणमै । यह सबक एक मानि ऐसें माने जो मैं बोलों हों । बहुरि अपने गमनादिक क्रियाकी वा बस्तुग्रहणादिककी ईच्छा होय तब अपने प्रदेशनिकों जैसे कार्य बने तैसें हलावे तब एकक्षेत्रावगाहतै शरीरके अंग हालेँ तब वह कार्य बने । अथवा अपनी इच्छा विना शरीर हालै तब अपने प्रदेश भी हालेँ । यह सबक एक मानि ऐसें मानै, मैं गमनादिकार्य करों हौं वा वस्तु ग्रहौं हौं । वा में किया है इत्यादिरूप माने है । बहुरि जीवके कषायभाव होय तब शरीरकी चेष्टा ताकै अनुसार होय जाय । जैसें क्रोधादिक भए रक्त नेत्रादिक हो जांय । हास्यादि भए प्रफुल्लित वदनादि होय जाय । पुरुषवेदादि भए लिंगकाठिन्यादि होय जाय । यह सबक एक मानि ऐसा मान की ए कार्य सर्व मैं करौं हौं । बहुरि शरीरविषै शीतउष्ण क्षुधा तृषा रोग आदि अवस्था हो है ताकै निमित्त मोहभाव
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