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मो.ला.
प्रकाश
है। अर मनुष्यादि पर्यायनिका वा घटपटादिका अवस्था आकारादिविशेषनिकरि श्रद्धान करना अप्रयोजनभूत है। ऐसे ही अन्य जानने । या प्रकार कहे जे प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्व | तिनिका अयथार्थ श्रद्धान ताका नाम मिथ्यादर्शन जानना। अब संसारी जीवनिकै मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति कैसे पाइए है सो कहिए है। इहां वर्णन तौ श्रद्धानका करना है परन्तु जानै तब श्रद्धान करै तातें जाननेकी मुख्यताकरि वर्णन करिए है।
अनादित जीव है सो कर्मके निमित्त अनेक पर्याय धरै है तहां पूर्व पर्यायकों छोड़े नवीन पर्याय धरै । बहुरि वह पर्याय है सो एक तो आप आत्मा अर अनन्त पुदगलपरमाणु-| मय शरीर तिनिका एक पिंड बंधानरूप है । बहुरि जीवकै तिसपर्यायविर्षे यह मैं हों ऐसे अहं- ।। बुद्धि हो है । बहुरि आप जीव है ताका स्वभाव तौ ज्ञानादिक है अर विभाव क्रोधादिक हैं। अर पुद्गल परमाणूनिके वर्ण गन्ध रस स्पर्शादि स्वभाव हैं तिनि सबनिकों अपना स्वरूप माने || है। ए मेरे हैं ऐसे ममबुद्धि हो है । बहुरि आप जीव है ताकौं ज्ञानादिककी वा क्रोधादिककी | अधिकहीनतारूप अवस्था हो है । अर पुद्गलपरमाणनिकी वर्णादि पलटनेरूप अवस्था हो है तिनि सबनिकों अपनी अवस्था माने है । ए मेरी अवस्था है । ऐसें ममबुद्धि करै है। बहुरि || जीवकै अर शरीरकै निमित्तनैमित्तिक संबंध है तातै जो क्रिया हो है ताकों अपनी मानै है। अपना दर्शनज्ञानस्वभाव है ताकी प्रवृत्तिको निमित्त मात्र शरीरका अंगरूपस्पर्शनादि द्रव्यइंद्रिय