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प्रकाश
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60 వంటి
मो.मा. अंतर्मुहूर्त्तस्थिति रहै, तब कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टी होय। बहुरि अनुक्रमते इन निषेकनिका
नाश करि क्षायिक सम्यग्दृष्टी हो है । सो यह प्रतिपक्षी कर्मके प्रभावते' निर्मल है, वा मिथ्यात्वरूप रज ताके अभावते वीतराग है । याका नाश न होय । जहांत उपजै, तहांते सिद्ध | अवस्था पर्यंत याका सद्भाव है । ऐसें क्षायिक सम्यक्त्वका स्वरूप कह्या। ऐसे तीन भेद सम्यक्त्व के कहै । बहुरि अनन्तानुबन्धी कषाय होते सम्यक्त्वकी दोय अवस्था हो हैं। के तो अप्रशस्त उपशम हो है, के विसंयोजन हो है । तहां जो करणकरि उपशम विधानते उपशम
हो है, ताका नाम प्रशस्त उपशम है । उदयका अभाव ताका नाम अप्रशस्त उपशम है । सो| 1 अनन्तानुबन्धीका प्रशस्त तो उपशम होय नाही, अन्य मोहकी प्रकृतिनका हो है। बटुरि इ-17 | सका अप्रशस्त उपशम हो है । बहुरि जो तीन करणकरि · अनन्तानुबन्धीनिके परमास्यूनिकों || अन्य चारित्रमोहिनीकी प्रकृतिरूप परिणमाई, तिसका सत्ता नाश करिए, ताका नाम विसंयोजन है । जो इनविषै प्रथमोपशन सम्यक्त्ववियु तो अनन्तानुबंधीका अप्रशस्त उपशम ही है। बहुरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति पहिले अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन भए ही होय, ऐसा नियम कोई आचार्य लिखे हैं । कोई नियम नाहीं लिखे हैं । बहुरे क्षयोपशम सम्यक्त्व | विष कोई जीवकै अप्रशस्त उपशम हो है, वा कोईकै विसंयोजन हो है । बहुरि क्षायक सम्य| क्त्व है, सो पहलै अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन भए ही हो है, ऐसा जानना। यहां यह वि
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చిత్రం
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