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________________ मो.प्रा. प्रकाश 4 हो सो पुण्यका बन्ध धर्मानुरागतैं होइ अर धर्मानुरागविषै जीव थोरालागे । जीव तौ बहुत पापक्रियानिविषै ही प्रवर्तें हैं । तातें चौथी इच्छा कोई जीवकै कदाचित् कालविषै हो है । बहुरि इतना जानना, जो समान इच्छावान् जीवनिकी अपेक्षा तो चौथी इच्छावालाकै किछू तीनप्रकार इच्छा घटनेते सुख कहिए है । बहुरि चौथी इच्छावालाकी अपेक्षा महान् इच्छावाला चौथी इच्छा होतें भी दुखी ही है । काहुकै बहुत विभूति है अर वाकै इच्छा बहुत है। तौ वह बहुत आकुलतावान् है । अर जाकै थोरी विभूति है अर वाकै इच्छा थोरी है तो वह थोरा चाकुलतावान् है अथवा कोऊकै अनिष्ट सामग्री मिली है वाकेँ उसके दूर करनेकी इच्छा थोरी है तो वह थोरा आकुलतावान् है । बहुरि काहूकै इष्ट सामग्री मिली है परन्तु ताकै उनके भोगनेकी वा अन्य सामग्री की इच्छा बहुत है तौ वह जीव घना आकुलतावान् है । तातैं सुखी दुखी होना इच्छा के अनुसार जानना बाह्य कारनकै प्राधीन नाहीं है । नारकी दुखी र देव सुखी कहिए है सो भी इच्छाहीकी अपेक्षा कहिए है । जातै नारकीनिकै तीव्रकषायतै इच्छा बहुत है । देवनिकै मन्द कषायत इच्छा थोरी है । बहुरि मनुष्य तिर्यंच भी सुखी दुखी इच्छाही की अपेक्षा जानना । तीव्रकषायतें जाकै इच्छा बहुत ताकौं दुखी कहिये है मंदकषायतें जाकै इच्छाथोरी ताकौं सुखी कहिए है । परमार्थ घना वा थोरा है सुख नाहीं है । देवादिककों भी सुखी माने हैं सो भ्रम ही है । दुख ही उनके चौथी १०६
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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