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धरणवरण जिससे पानीका स्वाद व रंग बदल जावे। ऐसा प्राशुक पानी छ:घंटे चल सकेगा। यदि उसको औटा
श्रावक लिया जाये तो यह चौवीस घंटे चलेगा। यदि अधन न हो, मात्र खूब गर्म हो तो १२ घंटे चलेगा। २९९॥ पा १२ या २४ घंटेके भीतर २ उस प्राशुक पानीको वर्त लेना चाहिये, वह फिर छाननेसे कामके
लायक नहीं होता है। जिसमें स्थावर जलकायिक जीव भी न हों उस जलको पाशुक कहते हैं। दयावान गृहस्थ अनने पानीका वर्ताव नहीं रक्खेगा।
लोक-जीवरक्षा पटू कायस्य, शंकये शुद्ध भावना।
श्रावको शुद्धष्ठी च, जलं फास प्रवर्तते ।। ३०५ ।। मन्नवार्य (शुद्ध भावना) शुर सम्यग्दर्शनकी भावना करनेवाला (श्रावको शुष्टि च) श्रावक शुक्रष्टि रखनेवाला (पदकायस्य जीवरक्षा) :कायके प्राणियोंकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता इसलिये (फासु जकं प्रवर्तते) प्रासुक जल काममें लेता है।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टी श्रावकके भीतर सर्व प्राणी मात्र पर दयाभाव होता है। वह सर्व प्राणि. योपर मैत्रीभाव रखता है। इसलिये वह पृथ्वी कायिक, जल कायिक, वायु कायिक, अग्नि कायिक, ४वनस्पतिकायिक तथा त्रसकायिक, इन शरीरधारी छहों जातिके प्राणियोंपर परम दयालु होता है। वह
जीवरक्षाकतुसे पानी छानने में कोई प्रमाद नहीं करता है। यहां ग्रन्थकर्ताने लिखा है कि प्रापक प्रामुक जलका व्यवहार करता है। इससे पता चलता है कि प्राचीन कालमें यही रीति होगी कि पानीको छानकर गर्म कर लेते होंगे इससे वारवार छाननेका काम मिट जाता है। तथा प्राशुक जल बहुत मर्यादाका बहुत देरतक विना चिंताके वर्ता जाता है। उसमें न तो अस जंतु पैदा होते हैं न स्थावर । गृहस्थ श्रावकके यहां ऐसा रिवाज होना उचित दीख पडता है। इसतरह प्राशुक जल गहमें रखनेसे मुनि आदि पात्रोंको बरी सुगमतासे दान होसकता है। पुनः पुनः छानने में प्रमाद होना संभव है। जलको छानके तुर्त प्राशुक कर लिया गया, अब छानने में प्रमादको अवकाश भी न रहा, यह प्रदात उचित मालूम पड़ती है।
सर्व काम प्राशुक जलसे ही करना उचित है। यद्यपि इसमें एकदके जलकायिक जंतुओंकी हिंसा होती है परंतु मर्यादा तक उसमें ऐसे जीव उत्पन्न न होंगे न फिर उनके घातकी जरूरत होगी।४॥२९॥