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मो.मा. प्रकाश
होय वे है, अर स्वरूपचितवन करे तो राग द्वेष घटे है, ऐसे नीचली अवस्थावारे जीवनिकों पूर्वोक्त उपदेश है । जैसे कोऊ स्त्री, विकारभावकरि काहूकै घर जाय थी, ताक मनें करी-परघर मति जाय, घरमें बैठि रहो । बहुरि जो स्त्री निर्विकार भावकरि काहूकै घर जाय, यथायोग्य प्रवर्तें, तो किछु दोष है नाहीं । तैसें उपयोगरूप परणति रागद्वेषभावकरि परद्रव्यनिविषै प्रवर्तें थी, ताक मनें करी - परद्रव्यनिविषै मति प्रवर्ते, स्वरूपविषै मग्न रहौ । बहुरि जो उपयोगरूप परणति वीतरागभावकरि परद्रव्यकों जानि यथायोग्य प्रवर्ते, तौ किछू दोष है नाहीं । बहुरि वह कहै है — ऐसे है, तो महामुनि परिग्रहादिक चितवनका त्याग काहेको करें हैं । ताका
समाधान
जैसे विकाररहित स्त्री कुशीलके कारण परघरनिका त्याग करें, तैसें वीतरागपरणति राग द्वेषके कारण परद्रव्यनिका त्याग करें है । बहुरि जे व्यभिचारके कारण नाहीं, ऐसे परघर जानेका त्याग हैं नाहीं । तैसें जे राग द्वेगके कारण नाहीं, ऐसे परद्रव्य जाननेका त्याग है नाहीं । बहुरि वह कहै है - जो जैसें स्त्री, प्रयोजन जानि पितादिककै घर जाय तौ जात्रो, बिना प्रयोजन जिस तिसकै घर जाना तौ योग्य नाहीं । तैसें परपतिकों प्रयोजन जानि सप्ततत्वनि का विचार करना । बिना प्रयोजन गुणस्थानादिकका विचार करना योग्य नाहीं । ताका
समाधान
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