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________________ प्रकाश मो.मा. स्रवविष उपादेयपना आदि विपरीत अभिप्राय मिथ्यादृष्टीही रहै है । तातें जो तत्वार्थश्रद्धान। || विपरीताभिनिवेशरहित है, सोई सम्यग्दर्शन है । ऐसें विपरीताभिनिवेषरहित जीवादि तत्वनिका || श्रद्धानपना तौ सम्यग्दर्शनका लक्षण है । सम्यग्दर्शन लक्ष्य है सोई तत्वार्थसूत्रविषै कह्या । है,–'तत्वार्थश्रद्धानें सम्यग्दर्शनम्' ॥२॥ तत्वार्थनिका श्रद्धान सोइ सम्यग्दर्शन है । बहुरि । | सर्वार्थसिद्धि नामा सूत्रनिकी टीका है, तिसविर्षे तत्वादिक पदनिका अर्थ प्रगट लिख्या है, वा सात ही तत्व कैसे कहे सो प्रयोजन लिख्या है, ताके अनुसारनै इहाँ किछू कथन किया है, ऐसा जानना। बहुरि पुरुषार्थसिद्ध्युपायके विषै ऐसे ही कह्या है जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् । 'श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ॥ २२ ॥ याका अर्थ-विपरीताभिनिवेशकरि रहित जीवअजीव आदि तत्त्वार्थनिका श्रद्धान | सदाकाल करना योग्य है । सो यह श्रद्धान आत्माका स्वरूप है । दर्शनमोह उपाधि दूर भए प्रगट हो है, तातें आत्माका स्वभाव है । चतुर्थादि गुणस्थानविर्षे प्रगट हो है । पीछे सिद्ध | अवस्थाविर्षे भी सदा काल याका सद्भाव रहे है, ऐसा जानना । यहां प्रश्न उपजे है-जो, | तियंचादि तुच्छज्ञानी केई जीव सात तस्वनिका नाम भी न जानि सके, तिनिकै भी सम्यग्द - Pooclaogaao-00000000000CTOOGoogfooraME086MO018cfoosiOOKacrookaaroorkicfootoslokatondar
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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