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तारणतरण
॥ ३३७ ॥
श्लोक - ज्ञानं आराध्यते येन, पूज्य तत्वं च विंदते । शुद्धस्य पूज्यते लोके, ज्ञानमयं सार्थं ध्रुवं ॥ ३४५ ॥
अन्वयार्थ–(मेन ज्ञानं माराध्यते ) जिसने ज्ञानकी आराधना को हो व (पूज्य तत्वं च विंदते ) व पूज्य - नीय आत्मतत्वका अनुभव किया है ऐसे ( शुद्धस्य कोके पूज्यते ) शुद्ध ज्ञानधारीकी ही लोक में प्रतिष्ठा होती है (ज्ञानमयं सार्थ ध्रुवं ) ज्ञानमय रहना ही निश्चल यथार्थ तत्व है ।
बिशेषार्थ – ज्ञानाराधनाका महात्म्य बताते हैं कि पांचों परमेष्ठी ज्ञानकी आराधना करके ही हुए । इस ही आराधनाके द्वारा पूज्यपना है। जगतके भव्य जीव पांच परमेष्ठी महाराजको ज्ञानाराधनके गुणके द्वारा ही पूजते हैं। सिद्ध भगवान सिद्ध अवस्था में शुद्ध आत्मा में तल्लीन होते हुए ज्ञानचेतनाका आराधन कर रहे हैं। जब साधक अवस्था में थे तब भी यही आराधना थी ।
अरहंत परमेष्ठी भी निरंतर शुद्ध ज्ञानचेतनाका स्वाद लेते रहते हैं । पहले भी इसीका ही आराधन किया था । आचार्य, उपाध्याय तथा साधु शुद्धात्मा की आराधनाके कारण हो स्वयं मोक्षमार्गी हैं तथा भव्योंके द्वारा पूज्यनीय हैं।
इसलिये ज्ञानमई शुद्ध आत्मीक तत्व ही यथार्थ निश्चल तत्व है । इस तत्वको जिस जिसने ध्याया वही यथार्थ ज्ञानका आराधक है । इसलिये सम्यग्दृष्टोको देव, शास्त्र, गुरुकी पूजा भक्ति करते हुए उसी में ही संतोष मानके न रह जाना चाहिये परंतु एकांत स्थान में बैठकर शुद्ध आत्मीक तत्वका शुद्ध नयके द्वारा अवलोकन करके उसीका मनन करना चाहिये । उसीके सिवाय सर्व पर वस्तुओंसे राग छोड़ देना चाहिये । कर्मफलचेतना व कर्मचेतनाका व्यवहार बंद करके ज्ञान चेतना - मय रहनेका पुरुषार्थ करना योग्य है । इसीसे मोक्षको सीढीपर चढना होगा, यही परम दृढ आलंबन है ।
शास्त्र भक्ति ।
श्लोक – ज्ञानगुणं च चत्वारि, श्रुत पूजा सदा बुधैः ।
धर्मध्यानं च संयुक्तं, श्रुतपूजा विधीयते ।। ३४६ ॥
श्रावकाचार
॥१३७॥