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वारणतरण
अन्वयार्थ-ज्ञान गुणं च चत्वारि ) ज्ञान गुणकै देनेवाले चार अनुयोग हैं (श्रुतपूना सदा बुधैः) उन
श्रावकाचार ॐ शास्त्रोंकी पूजा सदा बुद्धिमानोंको करनी चाहिये (धर्मध्यानं च संयुक्त) धर्मध्यान सहित ही (श्रतपूना ४ विधीयते) श्रुतपूजा करनी योग्य है।
विशेषार्थ-जिनवाणीके शास्त्र चार अनुयोगों में वटे हैं-प्रथमानुयोग आदि। इन शास्त्रोंको पढनेसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है। अतएव किसी प्रकारकी लौकिक कांक्षा न रखके मात्र आत्मकल्याणके हेतु ही उन शास्त्रोंका पठन पाठन करना उचित है। तथा भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी उचित है। ज्ञानाभ्यास यह बहुत ही आवश्यक गृहस्थ कर्म है। शास्त्रके ध्यान पूर्वक पढनेसे मनके कुभाव बंद होजाते हैं,चिंताएं मिट जाती हैं, अज्ञानका नाश होता है, ज्ञानका प्रकाश होता है, कर्मकी निर्जरा होती है। प्राचीन आचार्योंने जो तत्वोंका मनन किया है उसका बोध होनेसे ज्ञान स्पष्ट होता है। यथार्थ भक्ति शास्त्रकी यही है जो उसका अर्थ भलेप्रकार समझकर धारणामें लिया जावे-उसको कालांतरमें भूला न जावे । रात दिन तत्वका विचार मनको प्रसन्न रखने के लिये वडा भारी साधन १ है। विषय कषायोंके मार्गसे बचानेवाला ज्ञानोपयोग है, आत्मा व अनात्माका भिन्नर स्वरूप सामने रखनेवाला तत्वका अभ्यास है, एक ही विषयके अनेक शास्त्रोंको पढकर हमें ज्ञानको निर्मल करना चाहिये । जितना अधिक शास्त्रोंका विशेष ज्ञान होगा उतना ही उपयोग अधिक देर तक वस्तुके विचारमें लग सकेगा । व्यवहार में श्रुतपूजा यह है कि हम उच्चासनपर शास्त्रोंको विराजमान करके उनकी स्तुति करके उनके भीतर अपनी गाढ भक्ति उत्पन्न करें। श्रुतभक्ति ज्ञानकी प्राप्तिमें दृढ निश्चय करानेवाली है। आत्महितके हेतु शास्त्र पढना व श्रुतपूजा करना धर्मध्यान है।
श्लोक-प्रथमानुयोग करणं, चरणं द्रव्याणि विंदंते ।
___ ज्ञानं ति अर्थ संपूर्ण, साध्यं पूजा सदा बुधैः ॥ ३४७ ॥ मन्वयार्थ-(प्रथमानुयोग करणं चरणं द्रव्याणि विदेते) प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग ऐसे चार प्रकार शास्त्र जानने चाहिये । (ज्ञानं ति अर्थ सम्पूर्ण) तीन अर्थ रत्नत्रय सहित जो ज्ञान है उसीकी (पूना सदा बुधैः साध्यं ) पूजा सदा पंडितोंको करनी योग्य है। विशेषार्थ-अनुयोगके चार भेद हैं जिनमें प्रथम अवस्थाके शिष्योंको धर्ममें रुचि बढ़ाने के
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