________________
॥३९॥
5. श्रुतज्ञानकी वृद्धि होती है (जथा रेते मच्छिका अण्ड) जैसे रेती में मलीका अंडा (स्वयं वर्षेति यं बुधैः) ४ श्रावना पार 3. स्वयं बढता जाता है वैसे ज्ञानियोंका ज्ञान बढता जाता है।
विशेषार्थ-यहां दूसरा दृष्टांत दिया है। जैसे रेतीमें बडी रक्षाके साथ रखा हुआ मछलीका अण्डा स्वयं बढता जाता है, क्योंकि उस मछलीको निरन्तर अण्डेका ध्यान है, उसी तरह जहां शुद्ध व दोष रहित सम्यग्दर्शन होता है, शास्त्रज्ञान बढता जाता है। यों तो हरएक आत्मा सहज शुरु पूर्ण ज्ञानमय है उसपर ज्ञानावरण कर्मका आवरण होनेसे वह बहुत कम जानता है। जितनार आवरण इटता जायगा उतना२ ज्ञानका प्रकाश होता जाता है। आवरणके होनेका मूल कारण कषाय है। कषाय भावोंसे ही ज्ञानावरणादि कर्मका बंध अंतर्मुहूर्त या उससे अधिक स्थितिरूप पडता है। तब नि:कषाय या वीतराग भाषसे अवश्य ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होता है, अर्थात् ज्ञान बढ़ता है। निश्चय शुद्ध सम्यग्दर्शनका अनुभव परिणामों में अपूर्व वीतराग भाव पैदा
कर देता है। बस यही भावोंकी शुद्धता ज्ञानावरणका क्षयोपशम करानेवाली है, श्रुतज्ञानको बढानेर पाली है । अतएव शुद्ध सम्यग्दर्शन सदा बना रहे ऐसा यत्न करना योग्य है। ____ श्लोक-दर्शनहीन तपं कृत्वा, व्रत संजम पढं किया।
चपलता हिंडि संसारे, जल सरणि तालु किटका ॥४०२॥ अन्वयार्थ (दर्शनहीन तपं कृत्वा व्रत संत्रम पदं क्रिया) जो सम्यग्दर्शनके बिना तप करते हैं, बत संयम पालते हैं, पठन पाठन करते हैं (चपलता) तथा चपलता या कषायभावका विकार अंतरंगमें रखते हैं ये (संसारे हिंडि) संसारमें भ्रमण करते हैं जैसे ( जल सरणि ताल किट्टका) ताड वृक्षका मैल नाला आदिमें बहता है।
विशेषार्थ-जैसे ताड वृक्षका मैल नदी, नाले आदि जलके मार्गमें दूरतक वहकर भ्रमण करता है वैसे ही जो कोई मुनि या श्रावकका चारित्र ठीक पालें परन्तु अंतरंगमें चपल हो माया, मिथ्या, निदान किसी शल्य सहित हो, सम्यग्दर्शनसे शून्य हो, आत्मानुभवके अभ्याससे रहित हो, आत्मानन्दकी रुचि रहित हो, अंतरंगमें इंद्रिय सुखकी वासना सहित हो तो उसका वह बाहरी चारित्र मोक्षका कारण नहीं सक्ता। वह मंद कषायसे पुण्य कर्म बांध लेगा, देवगतिमें चला