SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वारणतरण ॥ ३८९ ॥ श्लोक - दर्शनं यस्य हृदि दृष्टं, सुयं ज्ञान उत्पाद्यते । कमी दृष्टि यथा अंडं, स्वयं वर्धति यं बुधैः ॥ ४०० ॥ अन्वयार्थ — ( यस्य हृदि दर्शनं दृष्टं ) जिसके मन में सम्यग्दर्शन विद्यमान है (सुयं ज्ञान उत्पा) वहां ही श्रुतज्ञान बढता जाता है (यथा कमठी दृष्टि अंडं स्वयं वर्षति यं बुधैः ) जैसे कछवीकी दृष्टिने ही अंडा स्वयं बढता है इसी तरह बुद्धिमानोंका शास्त्रज्ञान बढता है । विशेषार्थ — सम्यग्दर्शनके होते ही जितना शास्त्र ज्ञान होता है वह सम्यक्ज्ञान नाम पाता है । तथा थोडेसे ही अभ्याससे व शुद्धात्माके अनुभव के प्रतापसे उसका शास्त्र ज्ञान दिनपर दिन बढता जाता है यहीं पर दृष्टांत दिया है जैसे कछुवीका अंडा होता है वह अंडा कछुवीकी दृष्टिसे ही बढता जाता है। इसका कारण यह है कि कछुवीका निरन्तर ध्यान अंडेकी तरफ रहता है। उसके इम्र संकल्पके निमित्त से ही अंडा बढता जाता है। उसी तरह सम्यक्तीका ध्यान निरंतर तत्व के अभ्यासमें रहता है । उसकी गाढ रुचि आत्मीक चर्चापर रहती है इससे उसका शास्त्र ज्ञान दिनपर दिन उन्नति करता जाता है । वह अति रुचिपूर्वक शास्त्रोंको देखता भी है पढता भी है। उसका मन एकाग्र हो शास्त्ररूपी वनमें क्रीड़ा करता है इससे उसको शास्त्र बोध बहुत जल्दी होता है। यहां यह भी अभिप्राय है कि सम्यक्तीका श्रुतज्ञान आत्मध्यानके प्रतापसे इसलिये बढ जाता है कि उसके श्रुनज्ञान ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होजाता है। सम्यक्ती साधु विना अभ्यासके ही बादशांगका पाठी होजाता है । यह सब सम्यक्ककी महिमा है । जब सम्यक्तके प्रभाव से केवलज्ञान होजाता है तब श्रुतज्ञानके लाभमें कोई विशेष कठिनाई नहीं है । शास्त्रका सेवन जैसे सम्यक्क होने में सहाई है वैसे सम्यक्त होने के पीछे सम्पक्तकी दृढता व ज्ञानकी वृद्धिके लिये भी सहकारी है। सम्पककी भले प्रकार रक्षा कर्तव्य है । श्लोक - दर्शनं यस्य हृदि शुद्धं, सुयं ज्ञानं च संभवं । मच्छिका अंड जथा रेते, स्वयं वर्धति यं बुधैः ॥ ४०१ ॥ अन्वयार्थ – (यस्य हृदि शुद्धं दर्शनं ) जिसके मनमें शुद्ध सम्यग्दर्शन है ( सुयं ज्ञानं च संभयं ) वहां ही श्रावकाचा ॥२-90
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy