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ज्ञान है व चारित्र है। व्यवहार धर्म तो वास्तव में निमित्त कारण है। जहा शुखात्माके लाभकीरश्रावकाच दृष्टिस ब्रतादि पालन हो वही सफल है वमोक्षमार्गमें सहकारी है। जहा यह दृष्टि न हो वहा मात्र पुण्य बंध होता है, उस पुण्यसे सुगति व सुसामग्रीकी प्राप्ति होसकी है, परन्तु संसारका भ्रमण दूर नहीं होसक्ता है।
श्लोक-अनेकपाठ पठनं च, अनेक क्रिया संजुतं ।
दर्शनं शुद्ध न जानते, वृथा दान अनेकधा ॥ ३९९ ॥ अन्वयार्थ (अनेकपाठ पठनं च) अनेक पाठोंका पढना (अनेक क्रिया संजुतं) अनेक प्रकार व्यवहार चारित्रका पालना (अनेकथा दान ) अनेक प्रकारका दान देना (वृथा) निरर्थक है, यदि (शुद्ध दर्शनं न जानते) शुख सम्यग्दर्शनको अनुभव नहीं किया जाय ।
विशेषार्थ-यहांपर भी यही दृढ किया है कि सम्यग्दृष्टी ज्ञानीकी दृष्टि सदा ही शुद्धात्मापर रहनी चाहिये । केवल परिणामोंकी शुद्धिके लिये, कषायोंको घटानेके लिये वह शास्त्रोको पढता है, पूजा व्रत उपवासादि क्रिया साधता है तथा चार प्रकारका दान देता है, तब ये सब बाहरी साधन उसके लिये शुद्धात्मापर लक्ष्य रखनेके लिये निमित्त होजाते हैं। ज्ञानी सम्यक्ती किसी विषयवासनाके अभिप्रायसे या किसी मान बडाई प्रसिद्धिके लिये या किसी मायाचारसे कोई धर्मकी क्रिया नहीं करता है। यदि शुद्धात्माकी तरफ लक्ष्य न रखके मात्र गृहस्थका बाहरी चारित्र पाला जावे, दानादि दिया जावे, अनेक शास्त्रोंका पठन पाठन किया जावे तो वह पुण्यबंध कारक तो होगा, परन्तु मोक्षमार्ग न होगा। मोक्षमार्ग तो निश्चयनयसें एक अभेद शुखात्माका अनुभव स्वरूप है। यही परमानन्दका कारण है। जबतक सम्यक्तीका उपयोग आत्माके ध्यानमें लगता है तबतक वह आत्माका ध्यान ही करता रहता है। जब उपयोगमें निर्बलता होजाती है तब विषय कषायोंसे बचने के लिये तथा पुन: फिर शुद्धात्मध्यानमें पहुंचनेके लिये मंद-कषायके कारणरूप कार्यों में प्रवृत्ति करता है। अर्थात् पूजा, दान, व्रतादि करता है । तथापि उनको बंधका कारण जानता है, निश्चय मोक्षमार्ग नहीं मानता है।