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________________ मो.मा. प्रकाश जे अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाए बिना धर्मविणे न लागें, वा पापते न डरें, तिनका || भला करनेके अर्थ ऐसे वर्णन करिए है । बहुरि झूठ तो तब होय, जवधर्मका फलकों पापका फल बनावें, पापका फलकों धर्मको फल बतावै । सो तो है नाहीं। जैसें दश पुरुष मिलि | कोई कार्य करें, तहां उपचारकरि एक पुरुष भी किया कहिए, तो दोष नाहीं। अथवा जाके पितादिक. कोई कार्य किया होय, तार्को एक जाति अपेक्षा उपचारकरि पुत्रादिक किया कहिए, तो दोष नाहीं। तैसें बहुत शुभ वा अशुभकार्यनिका फल भया, ताकौं उपचारकरि एक | शुभ वा अशुभकार्यका फल कहिए, तो दोष नाहीं । अथवा और शुभ वा अशुभकार्यका फल | भया होय, ताको एकजाति अपेक्षा उपचारकरि कोई और ही शुभ वा अशुभकार्यका फल कहिए, तो दोष नाहीं । उपदेशविर्षे कहीं व्यवहार वर्णन है, कहीं निश्चय वर्णन है। यहां उपचाररूप व्यवहार वर्णन किया है, ऐसें याकों प्रमाण कीजिए है। याकों तारतम्य न मानि, | लेना ! तारतम्य करणानुयोगविष निरूपण किया है, सो जानना । बहुरि प्रथमानुयोगविषै 1 उपचाररूप कोई धर्मका अङ्ग भए सम्पूर्ण धर्म भया कहिए है । जैसें जीवनिकै शंका कांक्षादिक न भए, तिनकै सम्यक्त भया कहिए । सो एक कोई कार्य विषे शंका कांक्षा न किए ही | तो सम्यक्त न होय, सम्यक्त तो तत्वश्रद्धान भए हो है । परंतु निश्चय सम्यक्तका तो व्यवहारविषे उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्तका कोई एक अंग विषय संपूर्स व्यवहार स *HoneymookdoorpRMOOOODRoop018T00088600000000000000000000000000000000 ४१५
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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