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धारणतरण
ફા
भोगोपभोगसाधनमात्रं सावयमक्षमा मोक्तुं । ये तेपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव तु ॥ १०१ ॥
भावार्थ — गृहस्थी भोग व उपभोगके साघन करनेके लिये हिंसाकारी वचन बोलना छोड नहीं सक्ता। उसके सिवाय समस्त प्रकार असत्यको नित्य ही छोड़ता है। जैसे प्रमत्त भाव सहित प्राणीवध करना हिंसा है, वैसे प्रमत्त भाव सहित अप्रशस्त या प्राणी पीडाकारी वचन बोलना अजून है । प्रमत्त भाव सहित परवस्तुको विना दिये लेना चोरी है। प्रमत्त भाव सहित मैथुन करना अब्रह्म है । परिग्रह में मूर्छा रखना परिग्रह है ।
असस्य चार प्रकार है- १ –वस्तु हो कहना नही है । २स्तु नहीं है कहना है । ३ स्तु हो कुछ कहना कुछ, ४ – गर्दिन, सावद्य, अमिय, कठोर, हास्यमय, बरुवशदमय, मर्मछेदक वचन कहना गर्हित है, आरंभ सम्बन्धी वचन कहना सावध है। अरति, भय, शोक, वैर कलह करानेवाला वचन कहना अप्रिय है । इन सबमें मात्र सावध वचनोंका त्याग गृहस्थी अणुवनीके नहीं बन सका हैं, परन्तु अन्य सर्व प्रकार के असत्य वचनोंका वह त्याग करता है । गिरी, पढी, भूली हुई विना दी वस्तुको कषाय भावसे उठा देना चोरी है, इसका त्याग गृहस्थ को जरूरी है। अपनी विवाहिता स्त्रीके सिवाय परस्त्रीका त्याग ब्रह्मचर्य अणुव्रत है । पुरुषार्थ सिद्ध्युराय में कहा है
असम ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परिस्याज्यम् ॥ १०६ ॥
भावार्थ — गृहस्थ भावक कूपादिका जल विना दिये लेनेका त्याग नहीं कर सके, इसी तरह अन्य फल लकडी मिट्टी आदिको भी विना दिये ले सके हैं, जिनके लिये मनाई नहीं है । अन्य सर्व विना दी हुई वस्तुको लेनेका त्याग करना उचित है । ईमानदारी व सचाई का पैसा लेना यही अचौर्य अणुव्रत है। ब्रह्मचर्य अणुव्रतका स्वरूप वहीं कहा है
ये निजकलत्रमात्रं परिहर्तुं शक्नुवंति न हि मोहात् । निःशेषशेष योषिनिषेपणं तैरपि न कार्यम् ॥ ११० ॥ भावार्थ- जो मोहके कारण अपनी विवाहिता स्त्री मात्रका भी त्याग नहीं कर सके उनको उचित है कि शेष सर्व प्रकारकी स्त्रियोंके सेवनका त्याग करें । वेश्या, परस्त्री, दासी आदिले विरत रहे।
योपि न शक्तस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्य वास्तुवित्यादि । सोपि तनूकरणायोः निवृतिरूपं मतस्वत्वम् ॥ १२८ ॥
श्रावका पार
। ।। २७९ ॥