________________
पारणवरण ॥१४॥
श्लोक-साधओ साधुलोकेन, तव व्रत क्रियासंजुतं ।।
श्रावकाचार साधओ शुद्ध ज्ञानस्य, साधओ मुक्तिगामिनो ॥ ४५७ ॥ अन्वयार्थ-(साधुलोकेन) साधु महाराज (क्रिया संजुतं तव व्रत साधओ) क्रिया सहित तप व ब्रतको साधनेवाले हैं व (शुद्ध ज्ञानस्य साधओ) शुर ज्ञानके माधनेवाले हैं।(साघओ मुक्तिगामिनो) ऐसे साधु मोक्षगामी हैं।
विशेषार्थ-निर्गय साधु शास्त्रोक्त मार्गसे विधि सहित अनशनादि बारह व्रतोंका तथा पंच महावतोंका साधन करते हैं। व्यवहार चारित्रके बलमे शुखात्माका ध्यान बढाते हैं। ध्यानके बलसे ज्ञानकी खन्नति करते चले जाते हैं। ऐसे ही मधु अवश्य मोक्षका लाभ करते हैं।
श्लोक-अहंतं अहं देवं, सर्वज्ञं केवलं ध्रुवं ।
नंतानंत दिष्टं च, केवल दर्शन दर्शनं ॥ ४५८॥ अन्वयार्थ (अर्हतं अहं देवं) अगन भगवान ही पूजने योग्य देव हैं (सर्वज्ञ केवलं ध्रुव) सर्वज्ञ हैं स्पधीन हैं, निश्चल हैं ( नन्तानन्त विष्टं च ) अनन्तान लाकालोकके सर्व पदार्थों को जाननेवाले हैं। (केवल दर्शन वर्शनं ) केवल दर्शन व सम्यक्त धारी हैं।
विशेषा-माधु महाराज जिस पदकी भावन भाते हैं वह शरीर सहिन जीवन्मुक्त परमा. साका पद अनपद है। जहां निर्मल ज्ञान स्वाधीन लोकालोक प्रकाशक व निर्मल दर्शन स्वाधीन १ लोकालोक दर्शक गट जाता है। मीणघर व, मुनिराज व चक्रवर्ती. महाराजा, राजा इन्द्र धरणेन्द्र उन ही की भक्ति करने हैं उन मामाक गुण अनंतकाल के लिये प्रगट होगए नपर पुन: आरण न आनेहै। आयुग्माण शरीरमें है फिर अवश्य सिद्ध होजायेंगे।
श्लोक-मिद्धं मिद्धि संयुक्तं, अष्ट गुणं च संयुतं ।
अनाहतं त्यक्तरूपेण, सिद्धं शाश्वतं ध्रुवं ॥ ४५९ ॥ अन्वयार्व-(सिद्ध) मिड भगवान (सिद्ध संयुकआत्माकी सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं (अष्ट गुणं च संयुतं) आठ गुणों काके भूषित अनाहत) अव्यावाध (त्यक्तरूपेण सिद्धं) त्यक्त रूपसेपगटपने सिख हैं (शाश्वतं) अविनाशी (ध्रुवं निबल हैं।
॥४२४